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जैनधर्म का प्राण
नकी जाय तो, जैन दृष्टि के अनुसार, वह ब्रह्मचर्य लोकोत्तर (आध्यात्मिक) नही है। जैन दृष्टि के अनुसार मोक्ष में उपयोगी होनेवाली वस्तु का ही सच्चा महत्त्व है। शरीरस्वास्थ्य, समाजबल आदि उद्देश्य तो सच्चे मोक्षसाधक आदर्श ब्रह्मचर्य मे से स्वत. सिद्ध होते है।।
ब्रह्मचर्य को सम्पूर्ण रूप से सिद्ध करने के लिए दो मार्ग निश्चित किये गये है : पहला क्रियामार्ग और दूसरा ज्ञानमार्ग । क्रियामार्ग विरोधी काम-सस्कारो को उत्तेजित होने से रोककर उसके स्थूल विकार-विष को ब्रह्मचर्य-जीवन मे प्रवेश नही करने देता, अर्थात् वह उसका निषेधपक्ष सिद्ध करता है, परन्तु उससे काम-सस्कार निर्मूल नहीं होता। ज्ञानमार्ग उस काम-संस्कार को निर्मूल करके ब्रह्मचर्य को सर्वथा और सर्वदा के लिए स्वाभाविक-जैसा बनाता है, अर्थात् वह उसके विधिपक्ष को सिद्ध करता है। जैन परिभाषा मे कहे तो क्रियामार्ग द्वारा ब्रह्मचर्य औपशमिक भाव से सिद्ध होता है, जबकि ज्ञानमार्ग द्वारा क्षायिक भाव से सिद्ध होता है। क्रियामार्ग का कार्य ज्ञानमार्ग की महत्त्व की भूमिका तैयार करना है, अतएव वह मार्ग वस्तुतः अपूर्ण होने पर भी बहुत उपयोगी माना गया है, और प्रत्येक साधक के लिए प्रथम आवश्यक होने से उस पर जैन शास्त्रो मे बहुत ही भार दिया जाता है। इस क्रियामार्ग मे बाह्य नियमों का समावेश होता है। उन नियमों का नाम गुप्ति है । गुप्ति यानी रक्षा का साधन अर्थात् बाड़। वैसी गुप्तियाँ नौ मानी गई है। एक अधिक नियम उन गुप्तियों मे जोड़कर उन्ही का ब्रह्मचर्य के दस समाधिस्थान के रूप में वर्णन किया गया है।
क्रियामार्ग में आनेवाले दस समाधिस्थानो का वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र के सोलहवें अध्ययन मे बहुत मार्मिक ढंग से किया गया है। उसका सार इस प्रकार है:
(१) दिव्य अथवा मानुषी स्त्री के, बकरी, भेड़ आदि पशु के तथा नपुंसक के ससर्गवाले शयन, आसन और निवासस्थान आदि का उपयोग नही करना।
(२) अकेले एकाकी स्त्रियों के साथ सम्भाषण नही करना । केवल स्त्रियों से कथावार्ता आदि नही कहना और स्त्रीकथा भी नही कहना, अर्थात्