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जैनधर्म का प्राण
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आते हैं। सूत्रो मे आनेवाले वर्णनो' पर से ज्ञात होता है कि भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा मे चार याम ( महाव्रत ) का प्रचार था और श्री महावीर भगवान ने उनमे एक याम ( महाव्रत ) बढाकर पचयामिक धर्म का उपदेश दिया । आचारागसूत्र मे धर्म के तीन याम' भी कहे गये है । उसकी व्याख्या देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि तीन याम की परम्परा भी जैनसम्मत होगी । इसका अर्थ यह हुआ कि किसी जमाने मे जैन परम्परा में ( १ ) हिसा का त्याग, (२) असत्य का त्याग, और ( ३ ) परिग्रह का त्याग —ये तीन ही याम थे। पीछे से उसमे चौर्य के त्याग का समावेश करके तीन के चार याम हुए और अन्त में कामाचार के त्याग को जोड़कर भगवान महावीर ने चार के पाँच याम किये । इस प्रकार भगवान महावीर के समय से और उन्ही के श्रीमुख से उपदिष्ट ब्रह्मचर्य का पृथक्त्व जैन परम्परा मे प्रसिद्ध है । जिस समय तीन या चार याम थे उस समय भी पालन तो पाँच का होता था, उस समय के विचक्षण और सरल मुमुक्षु चौर्य और कामाचार को परिग्रहरूप समझ लेते और परिग्रह के त्याग के साथ ही उन दोनों का त्याग भी अपने आप हो जाता । पार्श्वनाथ की परम्परा तक तो कामाचार का त्याग परिग्रह के त्याग मे ही आ जाता, फलत उसका अलग विधान नही हुआ था; परन्तु इस प्रकार के कामाचार के त्याग के अलग विधान के अभाव मे श्रमण सम्प्रदाय मे ब्रह्मचर्य मे शैथिल्य आया और कई तो वैसे अनिष्ट वातावरण मे फँसने भी लगे । इसीसे भगवान महावीर ने परिग्रहत्याग मे समाविष्ट होनेवाले कामाचार त्याग का भी एक खास महाव्रत के रूप मे अलग उपदेश किया ।
४. ब्रह्मचर्य का ध्येय और उसके उपाय
जैनधर्म मे अन्य सभी व्रत नियमों की भाँति ब्रह्मचर्य का साध्य भी महत्त्व की मानी जानेवाली चाहे जो तो भी यदि उससे मोक्ष की साधना
केवल मोक्ष है । जगत की दृष्टि से बात ब्रह्मचर्य से सिद्ध हो सकती हो,
१. स्थानागसूत्र पृ० २०१ ।
२. आचारागसूत्र श्रु० १, अ० ८, उ० १ ।