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________________ : १२ : जिज्ञासुओ के समक्ष उपस्थित करना । यह जानकारी मिलने पर जैनधर्म तथा जैनदर्शन की दूसरे भारतीय दर्शनो की अपेक्षा क्या विशेषता है तथा उसके साथ वे कहा तक मिलते-जुलते है; इसका भी कुछ अनुमान जिज्ञासुओ को सहज भाव से हो सकेगा। दूसरी दृष्टि है, पूज्य पण्डितजी की सत्य शोधक, तुलनात्मक, तटस्थ, समन्वयगामी और मौलिक विद्वत्ता का थोड़ा-सा परिचय जिज्ञासुओ को कराना । समत्व एव सत्य को केन्द्र मे रखकर समस्त भारतीय दर्शनों और धर्मो का अभ्यास करने वाले एक विद्वान के रूप मे पण्डितजी का स्थान अद्वितीय है, यह कहने की आवश्यकता नही है । जैनधर्म एवं जैनदर्शन के प्राथमिक जिज्ञासुओ की दृष्टि से यह पुस्तक तैयार नही की गई, परन्तु जिन्हे प्रारम्भिक ज्ञान है, ऐसे जिज्ञासु यदि एक अभ्यासी की तरह चिन्तन-मननपूर्वक इस पुस्तक को पढेंगे तो अनेक विषयो के ऊपर नये प्रकाश की उपलब्धि के साथ उन्हें पण्डित - जी का और भी अधिक साहित्य पढने की प्रेरणा प्राप्त हुए बिना नही रहेगी । इस पुस्तक की एक पूरक पुस्तक के रूप में पण्डितजी की 'चार तीर्थकर' नाम की पुस्तक पढने का हम सब जिज्ञासुओ से आग्रह करते है । इस पुस्तक मे सगृहीत विषयो के अतिरिक्त जैनधर्मदर्शन विषयक दूसरे भी अनेक विषय ज्ञातव्य हैं, परन्तु पुस्तक की पृष्ठ संख्या को मर्यादा में रहकर जो कुछ भी योग्य सामग्री दी जा सकती थी, वह -चुनकर देने का प्रयत्न हमने किया है । आशा है, जिज्ञासुओं तथा अभ्यासियो को यह उपयोगी सिद्ध होगी । यह पुस्तक सामान्य पाठको को भी सुलभ हो, इस दृष्टि से अजमेर के श्री मदनचन्द, शिवचन्द घाड़ीवाल ट्रस्ट ने इसके प्रकाशन मे एक हजार रुपये की सहायता दी है। पुस्तक का मूल्य इसी से कम रखना - संभव हो सका है । - दलसुख मालवणिया
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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