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815 2 00/A-62 फलत एक स्वतंत्र कालद्रव्य भी अनिवार्य था। इस प्रकार पाच अस्तिकायो के स्थान पर छह द्रव्य भी हुए। जब काल को स्वतत्र द्रव्य नही माना जाता तब उसे जीव और अजीव द्रव्यों के पर्यायरूप मानकर काम चलाया जाता है ।
__ अब सात तत्त्व और नौ तत्त्व के बारे मे थोडा स्पष्टीकरण कर ले । जैनदर्शन मे तत्त्वविचार दो प्रकार से किया जाता है। एक प्रकार के बारे मे हमने ऊपर देखा। दूसरा प्रकार मोक्षमार्ग में उपयोगी हो, उस तरह पदार्थों की गिनती करने का है। इसमें जीव, अजीव, आस्रव, सवर, बन्ध, निर्जरा और मोक्ष-इन सात तत्त्वो की गिनती का एक प्रकार और उसमे पुण्य एव पाप का समावेश करके कुल नौ तत्त्व गिनने का दूसरा प्रकार है। वस्तुत जीव और अजीव का विस्तार करके ही सात और नौ तत्त्व गिनाये है, क्योकि मोक्षमार्ग के वर्णन मे वैसा पृथक्करण उपयोगी होता है। जीव और अजीव का स्पष्टीकरण तो ऊपर किया ही है। अशतः अजीव-कर्मसंस्कार-बन्धन का जीव से पृथक होना निर्जरा है और सर्वांशत पृथक होना मोक्ष है। कर्म जिन कारणो से जीव के साथ बन्ध मे आते है वे कारण आस्रव है और उसका निरोध सवर है। जीव और अजीव-कर्म का एकाकार जैसा सम्बन्ध बन्ध है।
साराश यह कि जीव मे राग-द्वेष, प्रमाद आदि जहातक रहते है, वहातक बन्ध के कारणो का अस्तित्व होने से ससारवृद्धि हुआ करती है। उन कारणो का निरोध किया जाय तो ससार भाव दूर होकर जीव सिद्धि अथवा निर्वाण अवस्था प्राप्त करता है। निराध की प्रक्रिया... को सवर कहते है, अर्थात जीव की मुक्त होने की साधना-विरति आदि-सवर है, और केवल विरति आदि से सन्तुष्ट न होकर जीव कर्म से छूटने के लिए तपश्चर्या आदि कठोर अनुष्ठान आदि भी करता है, उससे निर्जरा-आशिक छुटकारा होता है और अन्त में वह मोक्ष प्राप्त करता है।
सक्षेप मे, इस पुस्तक के संकलन के पीछे हमारी दो दृष्टियां रही है। एक तो यह कि जैनदर्शन एव जैनधर्म के बारे में कुछ विशिष्ट जानकारी