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जैनधर्म का प्राण
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१ जैन
२ वैदिक २. माधुजीवन की अशक्यता २. चारो आश्रम के सभी प्रकार के का प्रश्न ।
अधिकारियों के जीवन की तथा तत्सबधी कर्तव्यो की अशक्यता
का प्रश्न। ३. शास्त्रविहित प्रवृत्तियो मे ३. शास्त्रविहित प्रवृत्तियो मे हिंसाहिसा का अभाव, अर्थात् दोष का अभाव, अर्थात् निषिद्धानिषिद्धाचरण ही हिंसा। चार ही हिंसा है।
यहाँ यह ध्यान रहे कि जैन तत्त्वज्ञ 'शास्त्र' शब्द से जैन शास्त्र को-खासकर साधु-जीवन के विधि-निषेध प्रतिपादक शास्त्र को ही लेता है; जर्व के वैदिक तत्त्वचिन्तक शास्त्र शब्द से उन सभी शास्त्रों को लेता है, जिन मे वैयक्तिक, कौटुम्बिक, सामाजिक, धार्मिक और
राजकीय आदि सभी कर्तव्यो का विधान है। ४. अन्ततोगत्वा अहिंसा का मर्म ४. अन्ततोगत्वा अहिसा का तात्पर्य
जिनाज्ञा के-जैन शास्त्र के वेद तथा स्मृतियो की आज्ञा के यथावत् अनुसरण मे ही है। पालन मे ही है।
(द० औ० चि० ख० २, पृ० ४१२-४१७)
अहिंसा की भावना का विकास
नेमिनाथ को करुणा भगवान पार्श्वनाथ के पहले निर्ग्रन्थ-परम्परा मे यदुकुमार नेमिनाथ हो गए है। उनकी अर्घ-ऐतिहासिक जीवनकथाओं में एक घटना का जो उल्लेख मिलता है, उसको निर्ग्रन्थ-परम्परा की अहिंसक भावना का एक सीमाचिह्न कहा जा सकता है। लग्न-विवाहादि सामाजिक उत्सव-समारंभों में जीमनेजिमाने और आमोद-प्रमोद करने का रिवाज तो आज भी चालू है, पर उस समय ऐसे समारभो मे नानाविध पशुओ का वध करके उनके मांस से जीमन को आकर्षित बनाने की प्रथा आम तौर से रही। खास कर क्षत्रियादि जातियो मे तो यह प्रथा और भी रूढ़ थी । इस प्रथा के अनुसार लग्न के निमित्त किए जाने वाले उत्सव में वध करने के लिए एकत्र किये गए हरिन