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जैनधर्म का प्राण
विशिष्ट रूप से बहता था, जो कालक्रम से आगे जाकर दीर्घ तपस्वी भगवान् महावीर के जीवन मे उदात्त रूप मे व्यक्त हुआ। हम उस प्रकटीकरण को 'आचाराङ्ग', 'सूत्रकृताङ्ग' आदि प्राचीन जैन आगमो मे स्पष्ट देखते है। अहिंसा धर्म की प्रतिष्ठा तो आत्मौपम्य की दृष्टि मे से ही हुई थी, पर उक्त आगमो मे उसका निरूपण और विश्लेषण इस प्रकार हुआ है--
(१) दु.ख और भय का कारण होने से हिसामात्र वर्ण्य है, यह अहिसा सिद्धान्त की उपपत्ति।
(२) हिंसा का अर्थ यद्यपि प्राणनाश करना या दु.ख देना है, तथापि हिसाजन्य दोष का आधार तो मात्र प्रमाद अर्थात् रागद्वेषादि ही है । अगर प्रमाद या आसक्ति न हो तो केवल प्राणनाश हिसा कोटि मे आ नहीं सकता, यह अहिंसा का विश्लेषण ।
(३) वध्य जीवों का कद, उनकी संख्या तथा उनकी इन्द्रिय आदि संपत्ति के तारतम्य के ऊपर हिसा के दोष का तारतम्य अवलवित नहीं है; किन्तु हिंसक के परिणाम या वृत्ति की तीव्रता-मदता, सज्ञानता-अज्ञानता या बलप्रयोग की न्यूनाधिकता के ऊपर अवलबित है, ऐसा कोटिक्रम ।
उपर्युक्त तीनो बाते भगवान् महावीर के विचार तथा आचार मे ले फलित होकर आगमो मे ग्रथित हुई है । कोई एक व्यक्ति या व्यक्तिसमूह कैसा ही आध्यात्मिक क्यो न हो, पर वह सयमलक्षी जीवनधारण का भी प्रश्न सोचता है तब उसमे से उपर्युक्त विश्लेषण तथा कोटिक्रम अपने आप ही फलित हो जाता है । इस दृष्टि से देखा जाए तो कहना पड़ता है कि आगे के जैन वाङमय मे अहिसा के सबध मे जो विशेष ऊहापोह हुआ है उसका मूल आधार तो प्राचीन आगमो मे प्रथम से ही रहा ।
समूचे जैन वाङमय में पाए जानेवाले अहिमा के ऊहापोह पर जब हम दृष्टिपात करते हैं, तब हमे स्पष्ट दिखाई देता है कि जैन वाङमय का अहिंसा सबधी ऊहापोह मुख्यतया चार बलो पर अवलबित है। पहला तो यह कि वह प्रधानतया साधु जीवन का ही अतएव नवकोटिक-पूर्ण अहिसा का ही विचार करता है। दूसरा यह कि वह ब्राह्मण परपरा में विहित मानी जानेवाली और प्रतिष्ठित समझी जानेवाली यज्ञीय आदि अनेकविध हिसाओं का विरोध करता है। तीसरा यह कि वह अन्य श्रमण परपराओ के त्यागी