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अहिंसा
अहिंसा का सिद्धांत आर्य परपरा मे बहुत ही प्राचीन है और उसका आदर सभी आर्यशाखाओ मे एक-सा रहा है। फिर भी प्रजाजीवन के विस्तार के साथ-साथ तथा विभिन्न धार्मिक परपराओ के विकास के साथ-साथ, उस सिद्धात के विचार तथा व्यवहार मे भी अनेकमुखी विकास हुआ देखा जाता है। अहिसा-विषयक विचार के मुख्य दो स्रोत प्राचीन काल से ही आर्य परपरा मे बहने लगे ऐसा जान पड़ता है। एक स्रोत तो मुख्यतया श्रमण जीवन के आश्रय से वहने लगा, जब कि दूसरा स्रोत ब्राह्मण परपरा-चतुर्विध आश्रमके जीवन-विचार के सहारे प्रवाहित हुआ। अहिसा के तात्त्विक विचार में उक्त दोनो स्रोतो मे कोई मतभेद देखा नहीं जाता। पर उसके व्यावहारिक पहलू या जीवनगत उपयोग के बारे मे उक्त दो स्रोतो मे ही नहीं, बल्कि प्रत्येक श्रमण एवं ब्राह्मण स्रोत की छोटी-बडी अवान्तर शाखाओ मे भी, नाना प्रकार के मतभेद तथा आपसी विरोध देखे जाते है । उसका प्रधान कारण जीवनदृष्टि का भेद है । श्रमण परपरा की जीवनदृष्टि प्रधानतया वैयक्तिक और आध्यात्मिक रही है, जब कि ब्राह्मण परपरा की जीवनदृष्टि प्रधानतया सामाजिक या लोकसग्राहक रही है। पहली में लोकसग्रह तभी तक इष्ट है जब तक वह आध्यात्मिकता का विरोधी न हो । जहाँ उसका आध्यात्मिकता से विरोध दिखाई दिया वहाँ पहली दृष्टि लोकसग्रह की ओर उदासीन रहेगी या उसका विरोध करेगी । जब कि दूसरी दृष्टि में लोकसग्रह इतने विशाल पैमाने पर किया गया है कि जिससे उसमे आध्यात्मिकता और भौतिकता परस्पर टकराने नहीं पाती।
आगमों में अहिंसा का निरूपण श्रमण परपरा की अहिंसा सबधी विचारधारा का एक प्रवाह अपने