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जैनधर्म का प्राण
सर्वथा एक मत और एक विचार देखते है, तब प्रश्न उठता है कि जब सभी दर्शनो के विचारो मे मौलिक एकता है तब पन्थ-पन्थ के बीच कभी न मिट सके इतना अधिक भेद क्यो दिखता है ? ___ इसका उत्तर स्पष्ट है। पन्यो की भिन्नता के मुख्य दो कारण है : तत्त्वज्ञान की भिन्नता तथा बाह्य आचार-विचार की भिन्नता । कई पन्थ ऐसे है, जिनके बीच बाह्य आचार-विचार की भिन्नता के अतिरिक्त तत्त्वज्ञान की विचारसरणी मे भी अमुक भेद है, जैसे कि वेदान्त, बौद्ध और जैन आदि पन्थ । कई पन्थ या उनकी शाखाए ऐसी भी है जिनकी तत्त्वज्ञान-विषयक विचारसरणी मे खास भेद नही होता, उनका भेद मुख्य रूप से बाह्य आचार के आधार पर पैदा होता है और पोषित होता है; उदाहरणार्थ, जैन दर्शन की श्वेताम्बर, दिगम्बर और स्थानकवासी इन तीन शाखाओ को इस वर्ग मे गिनाया जा सकता है। ___ आत्मा को कोई एक माने या अनेक माने, कोई ईश्वर को माने या न माने इत्यादि तात्त्विक विचारणा का भेद बुद्धि के तरतमभाव पर आधारित है और वैसा तरतमभाव अनिवार्य है। इसी प्रकार बाह्य आचार एव नियमो के भेद बुद्धि, रुचि तथा परिस्थिति के भेद मे से पैदा होते है । कोई काशी जाकर गगास्नान और विश्वनाथ के दर्शन मे पवित्रता माने, कोई बुद्ध-गया और सारनाथ मे जाकर बुद्ध के दर्शन मे कृतकृत्यता माने, कोई शत्रुजय के दर्शन मे सफलता माने, कोई मक्का अथवा जेरूसलम जाकर धन्यता समझे; इसी प्रकार कोई एकादशी के तप-उपवास को अतिपवित्र माने, कोई अष्टमी और चतुर्दशी के व्रत को महत्त्व दे; कोई तप ऊपर अधिक भार न देकर दान पर भार दे, तो दूसरा कोई तप ऊपर भी अधिक भार दे। इस प्रकार परम्परागत भिन्न-भिन्न सस्कारो का पोषण और रुचिभेद का मानसिक वातावरण अनिवार्य होने से बाह्याचार और प्रवृत्ति का भेद कभी मिटेगा नही । भेद की उत्पादक एव पोषक इतनी अधिक बातों के होने पर भी सत्य एक ऐसा पदार्थ है जो वास्तव मे खण्डित होता ही नही है। इसीलिए हम उपर्युक्त आध्यात्मिक विकासक्रम की तुलना मे देखते हैं कि निरूपणपद्धति, भाषा और रूप चाहे जो हो, परन्दु जीवन का सत्य एक समान ही सभी अनुभवी तत्त्वज्ञो के अनुभव मे प्रकट हुआ है।