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जैनधर्म का प्राण
दूर होने पर वह अनुभव मे आता है; ठीक वैसे ही जैन दर्शन के अनुसार जीव का परमात्मभाव आवृत है और उस आवरण के दूर होने पर वह पूर्ण रूप से अनुभव मे आता है। इस बारे मे वस्तुन. वेदान्त और जैन के बीच व्यक्तिबहुत्व के अतिरिक्त दूसरा कोई भेद नहीं है ।
(ख) जैन शास्त्र मे जो सात तत्त्व कहे है उनमे से मूल जीव और अजीव इन दो तत्त्वो के बारे मे ऊपर तुलना की । अव अवशिष्ट पॉच मे से वस्तुत चार' तत्त्व ही रहते है। इन चार तत्त्वो का सम्बन्ध जीवनशोधन अथवा आध्यात्मिक विकासक्रम के साथ है, अन इन्हे चारित्रीय तत्त्व भी कह सकते है। वे चार तत्त्व है . बन्ध, आस्रव, सवर और मोक्ष । इन चार तत्त्वो का बौद्ध शास्त्रो मे अनुक्रम से दुख, दु खहेतु, निर्वाणमार्ग और निर्वाण इन चार आर्यसत्यो के रूप मे वर्णन मिलता है । साख्य एवं योगशास्त्र मे इन्ही का हेय, हेयहेतु, हानोपाय और हान कहकर चतुर्ग्रह के नाम से वर्णन पाया जाता है। न्याय और वैशेषिक दर्शन मे यही बात ससार, मिथ्याज्ञान, सम्यक्ज्ञान और अपवर्ग के नाम से कही है। वेदान्त दर्शन मे ससार, अविद्या, ब्रह्मसाक्षात्कार और ब्रह्मभाव के नाम से यही बात दिखलाई गई है।
जैन दर्शन मे बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा की तीन सक्षिप्त भूमिकाओ का तनिक विस्तार से चौदह भूमिकाओ के रूप में वर्णन पाया जाता है, जो जैन परम्परा मे गुणस्थान के नाम से प्रसिद्ध है। योगवासिष्ठ, जैसे वेदान्त के ग्रन्थो मे भी सात अज्ञान की और सात ज्ञान की इस प्रकार कुल चौदह आत्मिक भूमिकाओं का वर्णन आता है । सांख्य-योग दर्शन की क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध ये पाच चित्त-भूमिकाएं भी इन्ही चौदह भूमिकाओ का सक्षिप्त वर्गीकरण मात्र है। बौद्ध दर्शन मे भी इसी आध्यात्मिक विकासक्रम को पृथग्जन, सोतापन्न आदि छ: भूमिकाओं मे विभक्त करके वर्णन आता है। इस प्रकार हम सभी भारतीय दर्शनों में ससार से मोक्ष पर्यन्त की स्थिति, उसके क्रम और उसके कारणो के विषय में
१. निर्जरा तत्त्व की परिगणना यहाँ नही की है । आशिक कर्मक्षय निजरा है और सर्वांशतः कर्मक्षय मोक्ष है। संपादक