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________________ ब्राह्मण नामा जाति नामक कर्म हैं और निमित्त कारण है उसमें ब्रत संस्कारादि । कोई भी मनुष्य कोई वृत्ति करता है तो उसमें भी तो कोई कर्म ही तो कारण हैं। जैसे एक मनुष्य दट्टी साफ करने की वृत्ति करता है तो उसमें भी कोई न कोई उपाशन कारण तो है ही, जिसके कि कारण वह उस वृत्ति वाली जाति में पैदा हुआ इसलिए यह मानना पड़ेगा कि वृत्ति में भी जाति नामा नाम कर्म ही कारण है। भगवान् श्री आदिनाथ स्वामी ने वर्ण-प्रादुर्भाव करते समय चाहे जिसका चाहे सोही अटकल पञ्च वर्ण स्थापित नहीं कर दिया था किन्तु जिसमें जो योग्यता कर्म अनित थी उसे ही कार्यान्वित की थी इस विषय को मेरे द्वारा लिखे गये वर्ण विज्ञान नामक ग्रंथ में विशेषता से देखना अधिक उपयुक्त होगा। इसलिए केवल वर्तमान दृष्टिगोचर वृत्ति भेद से ही ब्राह्मणादि मान लेना अनुचित होगा। इसके अतिरिक्त यह बात भी है कि मनुष्य जाति में वृत्ति भेद की स्थापना तो भगवान् श्रादिनाथ स्वामी ने की थी वृत्ति भेद पहले था भी कहाँ ? जिससे कि उसके अनुसार ब्राह्मणादि वर्ण की स्थापना की जाती ? वास्तव में बात यह है कि जिन २ मनुष्यों में क्षतत्राणादि गुण पहले से विद्यमान थे किन्तु भोग भूमि के कारण अव्यक्त थे उनमें ही से भगवान ने अवधिलोचन से जानकर क्षत्रियादि वर्ण व्यक्त किया था। कोई
SR No.010348
Book TitleJain Dharm aur Jatibhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndralal Shastri
PublisherMishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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