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________________ ५४ जैनदर्शन विश्व सत् है या असत्, उभय है या अनुभय, इस प्रकारकी विचारधाराएँ उस समयके वातावरणमें अपने-अपने रूपमें प्रवाहित थीं। महावीरके वीतराग करुणामय शान्त स्वरूपको देखकर जो भव्यजन उनके धर्ममें दीक्षित होते थे, उन पचमेल शिष्योंकी विविध जिज्ञासाओंका वास्तविक समाधान यदि नहीं किया जाता तो उनमें परस्पर स्वमत पुष्टिके लिए वादविवाद चलते और संघभेद हुए बिना नहीं रहता। चित्तशुद्धि और विचारोंके समीकरणके लिए यह नितान्त आवश्यक था कि वस्तुस्वरूपका यथार्थ निरूपण हो । यही कारण है कि भगवान् महावीरने वीतरागता और अहिंसाके उपदेशसे पारस्परिक बाह्य व्यवहारशुद्धि करके ही अपने कर्तव्यको समाप्त नहीं किया; किन्तु शिष्यों के चित्तमें अहंकार और हिंसाको बढ़ानेवाले इन सूक्ष्म मतवादोंकी जो जड़ें बद्धमूल थीं, उन्हें उखाड़नेका आन्तरिक ठोस प्रयत्न किया। वह प्रयत्न था वस्तुके विराट् स्वरूपका यथार्थ दर्शन । वस्तु यदि अपने मौलिक अनादिअनन्त असंकर प्रवाहको दृष्टिसे नित्य है, तो प्रतिक्षण परिवर्तमान पर्यायोंको दृष्टिसे अनित्य भी। द्रव्यको दृष्टिसे सत्से ही सत् उत्पन्न होता है, तो पर्यायको दृष्टिसे असत्से सत् । इस तरह जगत्के यावत् पदार्थोंको उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप परिणामी और अनन्तधर्मात्मक बताकर उन्होंने शिष्योंकी न केवल बाह्य परिग्रहकी ही गाँठ खोली, किन्तु अन्तरंग हृदयग्रन्थिको भी खोलकर उन्हें अन्तर-बाह्य सर्वथा निर्ग्रन्थ बनाया था। विचारकी चरम रेखाः यह अनेकान्तदर्शन वस्तुतः विचारविकासको चरम रेखा है। चरम रेखासे मेरा तात्पर्य यह है कि दो विरुद्ध बातोंमें शुष्क तर्कजन्य कल्पना "सदेव सौम्येदमग्र आसीत् एकमेवाद्वितीयम् । तबैक आहुरसदेवेदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् । ... तस्मादसतः सज्जायत।' -छान्दो० ६।२।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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