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भारतीय दर्शनको जैनदर्शनकी देन साको साधनाका वैयक्तिक और सामाजिक दोनों प्रकारका प्रत्यक्षानुभूत मार्ग बताया। उनने पदार्थोके स्वरूपका यथार्थ निरूपण तो किया ही, साथ ही पदार्थोके देखनेका, उनके ज्ञान करनेका और उनके स्वरूपको वचनसे कहनेका रास्ता भी दिखाया। इस अहिंसक दृष्टिसे यदि भारतीय दर्शनकारोने वस्तुका निरीक्षण किया होता, तो भारतीय जल्पकथाका इतिहास इतना रक्तरंजित न हुआ होता; और धर्म तथा दर्शनके नामपर मानवताका निर्दलन नही होता। पर अहंकार और शासनको भावना मानवको दानव बना देती है; और उसपर मत और धर्मका 'अहम्' तो अतिदुनिवार होता है। युग-युगमे ऐसे ही दानवको मानव बनानेके लिए अहिंसक सन्त इसी समन्वयदृष्टिका, इसी समताभावका और इसी सर्वाङ्गीण अहिंसाका उपदेश देते आये है। यह जैनदर्शनको ही विशेषता है, जो वह अहिंसाकी तह तक पहुँचनेके लिए केवल धार्मिक उपदेश तक ही सीमित नहीं रहा, अपि तु वास्तविक आधारसे मतवादोंकी गुत्थियोंको सुलझानेको मौलिक दृष्टि भी खोज सका। उसने न केवल दृष्टि ही खोजी, किन्तु मन, वचन और काय इन तीनों द्वारोसे होनेवाली हिंसाको रोकनेका प्रशस्ततम मार्ग भी उपस्थित किया। अहिंसाका आधारभूत तत्त्वज्ञान अनेकान्तदर्शन : ___ व्यक्तिको मुक्तिके लिये या चित्तशुद्धि और वीतरागता प्राप्त करनेके लिए अहिंसाकी ऐकान्तिक चारित्रगत साधना उपयुक्त हो सकती है, किन्तु संघरचना और समाजमे उम अहिंसाकी उपयोगिता सिद्ध करनेके लिए उसके तत्त्वज्ञानकी खोज न केवल उपयोगी ही है, किन्तु आवश्यक भी है । भगवान् महावीरके संघमे जो सर्वप्रथम इन्द्रभूति आदि ग्यारह ब्राह्मण विद्वान् दीक्षित हुए थे, वे आत्माको नित्य मानते थे। उधर अजितकेशकम्बलिका उच्छेदवाद भी प्रचलित था। उपनिषदोंके उल्लेखोंके अनुसार
१. “एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ।" -ऋग्वेद १४१६ ४।४६ ।