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भारतीय दर्शनको जैनदर्शनको देन ५१ हमें परस्पर विरोधी मालूम होनेवाले भी अनन्तधर्म उसमें अविरुद्ध भावसे विद्यमान हैं । अपनी संकुचित विरोधयुक्त दृष्टिके कारण हम उसकी यथार्थ स्थितिको नहीं समझ पा रहे हैं। जैनदर्शन वास्तवबहुत्ववादी है। वह दो पृथक्सत्ताक वस्तुओंको व्यवहारके लिए कल्पनासे एक कह भी दे, पर वस्तुकी निजी मर्यादाको नहीं लांघना चाहता। एक वस्तुका अपने गुण-
पर्यायोंसे वास्तविक अभेद तो हो सकता है, पर दो व्यक्तियोंमें वास्तविक अभेद सम्भव नहीं है। इसको यह विशेषता है, जो यह परमार्थसत् वस्तुको परिधिको न लांघकर उसकी सीमामें ही विचरण करता है, और मनुष्योंको कल्पनाकी उड़ानसे विरतकर वस्तुकी ओर देखनेको बाध्य करता है। यद्यपि जैनदर्शनमें 'संग्रहनय' की एक दृष्टिसे चरम अभेदकी भी कल्पना की जाती है और कहा जाता है कि “सर्वमेकं सद्विशेषात्" [ तत्त्वार्थभा० ११३५ ] अर्थात् जगत् एक है, सद्रूपसे चेतन और अचेतनमें कोई भेद नहीं है। किन्तु यह एक कल्पना है। कोई एक ऐसा वास्तविक सत् नहीं है, जो प्रत्येक मौलिक द्रव्यमें अनुगत रहता हो। अतः जैनदर्शन वस्तुस्थितिके बाहरकी कल्पनाको उड़ानको जिस प्रकार असत् कहता है, उसी तरह वस्तुके एक धर्मके दर्शनमें ही वस्तुके सम्पूर्णरूपके अभिमानको भी विघातक मानता है। इन ज्ञानलवधारियोंको उदारदृष्टि देनेवाले तथा वस्तुकी यथार्थ झाँकी दिखानेवाले अनेकान्तदर्शनने वास्तविक विचारकी अन्तिम रेखा खींची है और यह सब हुआ है, मानस समतामूलक तत्त्वज्ञानको खोजसे।
मानस समताका प्रतीक :
इस तरह जब वस्तुस्थिति ही अनेकान्तमयी या अनन्तधर्मात्मिका है, तब मनुष्य सहज ही यह सोचने लगता है कि दूसरा वादी जो कह रहा है, उसकी सहानुभूतिसे समीक्षा होनी चाहिए, और उसका वस्तुस्थितिमूलक समीकरण होना चाहिए । इस स्वीयस्वल्पता और वस्तुकी अनन्त