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________________ जैनदशन चेतनत्व खोजा जाय या चेतनमें जड़त्व, तो वह नहीं मिल सकता; क्योंकि प्रत्येक पदार्थके अपने-अपने निजी धर्म सुनिश्चत है । वस्तु सर्वधर्मात्मक नहीं: वस्तु अनन्तधर्मात्मक है न कि सर्वधर्मात्मक । अनन्तधर्मोमें चेतनके सम्भव अनन्तधर्म चेतनमें मिलेंगे और अचेतनगत अनन्तधर्म अचेतनमें। चेतनके गुणधर्म अचेतनमें नहीं पाये जा सकते और न अचेतनके चेतनमें । हां, कुछ ऐसे सादृश्यमूलक वस्तुत्व आदि सामान्यधर्म भी है जो चेतन और अचेतन सभी द्रव्योंमे पाये जा सकते है, परन्तु सबको सत्ता जुदी-जुदी है । तात्पर्य यह कि वस्तु बहुत बड़ी है । वह इतनी विराट् है कि हमारे-तुम्हारे अनन्तदृष्टिकोणोंसे देखी और जानी जा सकती है । एक क्षुद्र दृष्टिका आग्रह करके दूसरेकी दृष्टिका तिरस्कार करना या अपनी दृष्टिका अहंकार करना वस्तु-स्वरूपकी नासमझीका परिणाम है। इस तरह मानस समताके लिए इस प्रकारका वस्तुस्थितिमूलक अनेकान्त-तत्त्वज्ञान अत्यावश्यक है । इसके द्वारा इस मनुष्यतनधारीको ज्ञात हो सकेगा कि वह कितने पानीमें है, उसका ज्ञान कितना स्वल्प है और वह किस तरह दुरभिमानसे हिंसक मतवादका सृजन करके मानव समाजका अहित कर रहा है । इस मानस अहिंसात्मक अनेकान्तदर्शनसे विचारों या दृष्टिकोणोंमे कामचलाऊ समन्वय या ढीला-ढाला समझौता नहीं होता, किन्तु वस्तुस्वरूपके आधारसे यथार्थ तत्त्वज्ञान-मूलक समन्वयदृष्टि प्राप्त होती है । अनेकान्तदृष्टिका वास्तविक क्षेत्र : इस तरह अनेकान्तदर्शन वस्तुकी अनन्तधर्मात्मकता मानकर केवल कल्पनाकी उड़ानको और उससे फलित होनेवाले कल्पित धर्मोको वस्तुगत माननेकी हिमाकत नहीं करता। वह कभी भी वस्तुकी सीमाको नहीं लांघना चाहता। वस्तु तो अपने स्थानपर विराट् रूपमें प्रतिष्टित है ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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