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________________ ३. भारतीय दर्शनको जैनदर्शनकी देन मानस अहिंसा अर्थात् अनेकान्तदृष्टि : भगवान् महावीर एक परम अहिंसक तीर्थकर थे । मन, वचन, और काय त्रिविध अहिंसाकी परिपूर्ण साधना, खासकर मानसिक अहिंसाकी स्थायी प्रतिष्ठा, वस्तुस्वरूपके यथार्थ दर्शनके बिना होना अशक्य थी। हम भले ही शरीरसे दूसरे प्राणियोंकी हिंसा न करें, पर यदि वचन-व्यवहार और चित्तगत्त विचार विषम और विसंवादी हैं, तो कायिक अहिंसाका पालन भी कठिन है । अपने मनके विचार अर्थात् मतको पुष्ट करनेके लिए ऊँच-नीच शब्द अवश्य बोले जायेंगे, फलतः हाथा-पाईका अवसर आये बिना न रहेगा । भारतीय शास्त्रार्थोंका इतिहास इस प्रकारके अनेक हिंसाकाण्डोंके रक्तरंजित पन्नोंसे भरा हुआ है, अतः यह आवश्यक था कि अहिंसाकी सर्वाङ्गीण प्रतिष्ठाके लिए विश्वका यथार्थ तत्त्वज्ञान हो और विचारशुद्धिमूलक वचनशुद्धिकी जीवनव्यवहारमें प्रतिष्टा हो। यह सम्भव ही नहीं है कि एक ही वस्तुके विषयमें दो परस्पर विरोधी मतवाद चलते रहे, अपने पक्षके समर्थनके लिये उचित-अनुचित शास्त्रार्थ होते रहें, पक्ष-प्रतिपक्षोंका संगठन हो तथा शास्त्रार्थमें हारनेवालोंको तेलकी जलती कड़ाहीमें जीवित तल देने जैसी हिंसक होड़ें भी लगें, फिर भी परस्पर अहिंसा बनी रहें। उन्होंने देखा कि आज सारा राजकारण धर्म और मतवादियोंके हाथमें है। जब तक इन मतवादोंका वस्तुस्थितिके आधारसे यथार्थदर्शनपूर्वक समन्वय न होगा, तब तक हिंसा और संघर्षको जड़ नहीं कट सकती। उनने विश्वके तत्त्वोंका साक्षात्कार किया और बताया कि 'विश्वका प्रत्येक चेतन और जड़ तत्त्व अनन्त धर्मोका भण्डार है। उसके विराट् स्वरूपको साधारण मानव पूर्णरूपमें नहीं जान सकता। उसका क्षुद्र ज्ञान वस्तुके एक-एक अंशको जानकर अपनेमें पूर्णताका दुरभिमान कर बैठा है।' विवाद वस्तुमें
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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