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जैनदर्शन बुद्धके समय यहाँ मक्खलिगोशाल; प्रक्रुध कात्यायन, पूर्ण कश्यप, अजित केश कम्बलि और संजय वेलट्ठिपुत्त जैसे अनेक तपस्वी अपनी-अपनी विचारधाराका प्रचार करनेवाले मौजूद थे। यहाँके दर्शनकार प्रायः त्यागी, तपस्वी और ऋषि ही रहे हैं। यही कारण था कि जनताने उनके उपदेशोंको ध्यानसे सुना । साधारणतया उस समयको जनता कुछ चमत्कारोंसे भी प्रभावित होती थी, और जिस तपस्वीने थोड़ा भी भूत और भविष्यकी बातोंका पता बताया वह तो यहाँ ईश्वरके अवतारके रूपमें भी पुजा । भारतवर्ष सदासे विचार और आचारकी उर्वर भूमि रहा है। यहाँको विचार-दिशा भी आध्यात्मिकताकी ओर रही है । ब्रह्मज्ञानको प्राप्तिके लिए यहाँके साधक अपना घर-द्वार छोड़कर अनेक प्रकारके कष्ट सहते हुए, कृच्छ्र साधनाएँ करते रहे हैं। ज्ञानीका सन्मान करना यहाँकी प्रकृतिमें है। दो विचार-धाराएँ:
इस तरह एक धारा तत्त्वज्ञान और विचारको मोक्षका साक्षात् कारण मानती थीं और वैराग्य आदिको उस तत्त्वज्ञानका पोषक । बिना विषयनिवृत्तिरूप वैराग्यके यथार्थ ज्ञानको प्राप्ति दुर्लभ है और ज्ञान प्राप्त हो जानेपर उसी ज्ञानाग्निसे समस्त कर्मोका क्षय हो जाता है । श्रमणधाराका साध्य तत्त्वज्ञान नहीं, चारित्र था। इस धारामें वह तत्त्वज्ञान किसी कामका नहीं, जो अपने जीवनमें अनासक्तिकी सृष्टि न करे । इसीलिए इस परम्परामें मोक्षका साक्षात् कारण तत्त्वज्ञानसे परिपुष्ट चारित्र बताया गया है । निष्कर्ष यह है कि चाहे वैराग्य आदिके द्वारा पुष्ट तत्त्वज्ञान या तत्त्वज्ञानसे समृद्ध चारित्र दोनों ही पक्ष तत्त्वज्ञानकी अनिवार्य आवश्यकता समझते ही थे। कोई भी धर्म तबतक जनतामें स्थायी आधार नहीं पा सकता था जबतक कि उसका अपना तत्त्वज्ञान न हो। पश्चिममें ईसाई धर्मका प्रभु ईशुके नामसे इतना व्यापक प्रचार होते हुए भी तत्त्व