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जैनदर्शन
कोई मार्ग बताने का दावा करता है, तो समझदार वर्ग उसे सुनने और समझने के लिए जागरूक होता है । प्रत्येक मतमें दु:खनिवृत्ति के लिए त्याग और संयमका उपदेश दिया है, और 'तत्त्वज्ञानसे मुक्ति होती है,' इस बातमें प्रायः सभी एकमत है । सांख्यकारिका' में "दु:खत्रयके अभिघातसे सन्तप्त यह प्राणी दुःख-नाशके उपायोंको जाननेकी इच्छा करता है ।" जो यह भूमिका बांधी गई है, वही भूमिका प्रायः सभी भारतीय दर्शनोंकी है । दुःखनिवृत्तिके बाद ' स्वस्वरूपस्थिति ही मुक्ति है' इसमें भी किसीको विवाद नहीं है । अतः मोक्ष, मोक्षके कारण, दुःख और दुःखके कारणों की खोज करना भारतीय दर्शनकार ऋषिको अत्यावश्यक था । चिकित्साशास्त्रकी प्रवृत्ति रोग, निदान, आरोग्य और औषधि इस चतुर्व्यूहको लेकर ही हुई है । बुद्ध के तत्त्वज्ञानके आधार तो 'दु:ख, समुदय, निरोध और मार्ग' ये चार आर्यसत्य ही हैं । जैन तत्त्वज्ञानमें मुमुक्षुको अवश्य-ज्ञातव्य जो सात तत्त्व गिनाये है, उनमें बन्ध, बन्धके कारण (आस्रव), मोक्ष और मोक्षके कारण ( संवर और निर्जरा ) इन्हीं का प्रमुखता से विस्तार किया गया है । जीव और अजीवका ज्ञान तो आस्रवादिके आवार जाननेकेलिए है । तात्पर्य यह है कि समस्त भारतीय चिन्तनको दिशा दुःखनिवृत्ति के उपाय खोजने की ओर रही है और न्यूनाधिकरूपसे सभी चिन्तकोंने इसमें अपने-अपने ढंग से सफलता भी पाई हैं ।
तत्त्वज्ञान जब मुक्तिके साधनके रूपमें प्रतिष्ठित हुआ और "ऋते ज्ञानात् न मुक्तिः” जैसे जीवनसूत्रोंका प्रचार हुआ तब तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिका उपाय तथा तत्त्वके स्वरूपके सम्बन्धमें भी अनेक प्रकारकी
१. “ दुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ । ” - सांख्यका० १ ।
२. “सत्यान्युक्तानि चत्वारि दुःखं समुदयस्तथा ।
निरोधो मार्ग एतेषां यथाभिसमयं क्रम : " - अभिधर्मको ६२ । धर्मसं० ६०५ ।
३. “जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । ” – तत्त्वार्थसूत्र १।४।