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जैनदशन श्रीकंठभाष्यमें अनवस्था दूपणका भी निर्देश है । परन्तु आठ दूषण एक ही साथ किसी ग्रन्थमें देखनेको नहीं मिले। धर्मकीर्ति आदिने विरोध दूषण ही मुख्यरूपसे दिया है । वस्तुतः देखा जाय तो विरोध ही समस्त दूपणोंका आधार है। ___ जैन ग्रन्थों में सर्वप्रथम अकलंकदेवने संशय, विरोध, वैयधिकरण्य, संकर व्यतिकर, अनवस्था, अप्रतिपत्ति और अभाव इन आठ दूषणोंका परिहार प्रमाणसंग्रह ( पृ० १०३ ) और अष्टशती ( अष्टसह० पृ० २०६ ) में किया है । विरोध दूपण तो अनुपलम्भके द्वारा सिद्ध होता है । जव एक ही वस्तु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूपमे तथा सदसदात्मक रूपसे प्रतीतिका विषय है तब विरोध नहीं कहा जा सकता। जैसे मेचकरत्न एक होकर भी अनेक रङ्गोंको युगपत् धारण करता है उसी तरह प्रत्येक वस्तु विरोधी अनेक धर्मोको धारण कर सकती है। जैसे पृथिवीत्वादि अपरसामान्य स्वव्यक्तियोंमें अनुगत होनेके कारण सामान्यरूप होकर भी जलादिसे व्यावर्तक होनेसे विशेष भी है, उसी तरह प्रत्येक वस्तु विरोधी दो धर्मोंका स्वभावतः आधार रहती है। जिस प्रकार एक ही वृक्ष एक शाखामें चलात्मक तथा दूमरी शाखामें अचलात्मक होता है, एक ही घड़ा मुंहरेपर लालरङ्गका तथा पेंदेमें काले रङ्गका होता है, एक प्रदेशमें आवृत तथा दूसरे प्रदेशमें अनावृत, एक देशसे नष्ट तथा दूसरे देशसे अनष्ट रह सकता है, उसी तरह प्रत्येक वस्तू उभयात्मक होती है। इसमें विरोधको कोई अवकाश नहीं है । यदि एक ही दृष्टिसे विरोधी दो धर्म माने जाते, तो विरोध होता।
जब दोनों धर्मोकी अपने दृष्टिकोणोंसे सर्वथा निश्चित प्रतीति होती है, तब संशय कैसे कहा जा सकता है ? संशयका आकार तो होता है'वस्तु है या नहीं ?' परन्तु स्याद्वादमें तो दृढ़ निश्चय होता है 'वस्तु स्वरूपसे है हो, पररूपसे नहीं ही है।' समग्न वस्तु उभयात्मक है ही । चलित प्रतीतिको संशय कहते हैं, उसकी दृढ़ निश्चयमें सम्भावना नहीं की जा सकती।