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स्याद्वाद-मीमांसा
५६९ इतने मात्रसे अतेकान्तको विरासतका सार्वत्रिक निर्वाह करने वालोंमें उनका नाम नहीं लिखा जा सकता।
सांख्यको प्रकृति तो एक और नित्य बनी रहती है और परिणमन महदादि विकारों तक सीमित है । इसलिये धर्मकीतिका दही और ऊँटमें एक प्रकृतिको दृष्टिसे अभेदप्रसंगका दूषण जम जाता है, परन्तु यह दूषण अनेकद्रव्यवादी जैनोंपर लाग नहीं होता। किन्तु दूषण देनेवाले इतना विवेक तो नहीं करते, वे तो सरसरो तौरसे परमतको उखाड़नेकी धुनमें एक ही झपट्टा मारते है।
तत्त्वसंग्रहकारने जो विप्र, निर्ग्रन्य और कापिलोंको एक ही साथ खदेड दिया है, वह भी इस अंशमे कि कल्पनारचित विचित्र धर्म तीनों स्वीकार करते है । किन्तु निग्रन्थपरम्परामे धर्मोकी स्थिति तो स्वभाविक है, उनका व्यवहार केवल परापेक्ष होता है । जैसे एक ही पुरुषमें पितृत्व और पुत्रत्व धर्म स्वाभाविक है, किन्तु पितृव्यवहार अपने पुत्रको अपेक्षा होता है तथा पुत्रव्यवहार अपने पिताकी दृष्टिसे । एक ही धर्मीमे विभिन्न अपेक्षाओंसे दो विरुद्ध व्यवहार किये जा सकते है । ___ इसी तरह वेदान्तके आचार्योने जैनतत्त्वका विपर्यास करके यह मान लिया कि जैनका द्रव्य नित्य ( कूटस्थनित्य ) बना रहता है, केवल पर्यायें अनित्य होती है, और फिर विरोधका दूषण दे दिया है । सत्त्व और असत्त्व को या तो अपेक्षाभंदके बिना माने हुए अरोपित कर, दूषण दिये गये है या फिर सामान्यतया विरोधका खड्ग चला दिया गया है। वेदान्त भाष्योमे एक 'नित्य सिद्ध' जीव भी मानकर दूपण दिये है। जब कि जैनधर्म किसी भी आत्माको नित्यसिद्ध नहीं मानता। सब आत्माएँ बन्धनोंको काटकर ही सादिमुक्त हुए है और होंगें। संशयादि दूषणोंका उद्धार :
उपर्युक्त विवेचनसे ज्ञात हो गया होगा कि स्याद्वादमें मुख्यतया विरोध और संशय ये दो दूषण ही दिये गये है। तत्त्वसंग्रहमें संकर तथा