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स्याद्वाद-मीमांसा
५६५ उसमें विरोध क्यों नही आता? तो वे बडी श्रद्धासे उत्तर देते है कि 'हमारा मानना युक्तिसे नही है, किन्तु ब्रह्मके भेदाभेदका निर्णय श्रुतिमे ही हो जाता है।' यानी श्रुतिसे यदि भेदाभेदका प्रतिपादन होता है, तो ये माननेको तैयार है, पर यदि वही बात कोई युक्तिसे सिद्ध करता है, तो उसमे इन्हे विरोधको गन्ध आती है। पदार्थके स्वरूपके निर्णयमे लाघव और गौरवका प्रश्न उठाना अनुचित है, जैसे कि एक ब्रह्मको कारण माननेमे लाघव है और अनेक परमाणुओको कारण माननेमे गौरव । वस्तुको व्यवस्था प्रतीतिसे की जानी चाहिये । 'अनेक समान स्वभाववाले सिद्धोको स्वतन्त्र माननेमे गौरव है और एक सिद्ध मानकर उसीको उपासना करनेमे लाघव है' यह कुतर्क भी इसी प्रकारका है; क्योकि वस्तुस्वरूपका निर्णय सुविधा और असुविधाकी दृष्टिसे नहीं होता। फिर जैनमतमे उपासनाका प्रयोजन सिद्धोको खुश करना नहीं है । वे तो वीतराग सिद्ध है, उनका प्रमाद उपासनाका साध्य नहीं है, किन्तु प्रारम्भिक अवस्थामे चित्तमे आत्माके शुद्धतम आदर्श रूपका आलम्बन लेकर उपासनाविधि प्रारम्भ को जाती है, जो आगेकी ध्यानादि अवस्थाओमे अपने आप छूट जाती है। भेदाभेद-विचार : ___ 'अनेक दृष्टियोसे वस्तुस्वरूपका विचार करना' यह अनेकान्तका सामान्य स्वरूप है । भ० महावीर और बुद्ध के समयमे ही नही, किन्तु उससे पहले भी वस्तुस्वरूपको अनेक दृष्टियोसे वर्णन करनेकी परम्परा थी। ऋग्वेदका 'एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' (२।३।२३,४६) यह वाक्य इसी अभिप्रायको सूचित करता है। बुद्ध विभज्यवादी थे। वे प्रश्नोका उत्तर एकांशमे 'हां' या 'ना' मे न देकर अनेकांशिक रूपसे देते थे।
यथार्थ निर्णोतत्वात् ''इत्थं जगद्ब्रह्मणोर्मेंदामेदौ स्वाभाविको श्रुतिस्मृतिसूत्रसाधितौ भवतः, कोऽत्र विरोधः ।"-निम्बार्कमा० टी० २।२।३३ ।