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________________ ५६४ जैनदर्शन मानकर भी ये उसमें उभयरूपता वास्तविक मानना चाहते हैं और जिस स्याद्वादमें विरुद्ध धर्मोकी वस्तुतः सापेक्ष स्थिति बनती है उसमें विरोध दूषण देते हैं ! ब्रह्मको अविकारी कहकर भी ये उसका जगतके रूपसे परिणमन कहते हैं। कुंडल, कटक आदि आकारोंमें परिणत होकर भी सुवर्णको अविकारी मानना इन्हींकी प्रमाणपद्धतिमें है । भला सुवर्ण जब पर्यायोंको धारण करता है तब वह अविकारी कैसे रह सकता है ? पर्वरूपका त्याग किये बिना उत्तरका उपादान कैसे हो सकता है ? 'ब्रह्मको जब रमण करनेकी इच्छा होती है तब वे अपने आनन्द आदि गुणोंका तिरोभाव करके जीवादिरूपसे परिणत होते हैं।' यह अविर्भाव और तिरोभाव भी पूर्वरूपका त्याग और उत्तरके उपादानका ही विवेचन है । अतः इनका स्याद्वादमें दूषण देना भी अनुचित है। श्रीनिम्बार्काचार्य और अनेकान्तवाद : ब्रह्मसूत्रके भाष्यकारोंमें निम्बार्काचार्य स्वभावतः भेदाभेदवादी हैं । वे स्वरूपसे चित्, अचित् और ब्रह्मपदार्थमें द्वैतश्रुतियोंके आधारसे भेद मानते है। किन्तु चित्, अचित्की स्थिति और प्रवृत्ति ब्रह्माधीन ही होनेसे वे ब्रह्मसे अभिन्न हैं । जैसे पत्र, पुष्पादि स्वरूपसे भिन्न होकर भी वृक्षसे पृथक प्रवृत्त्यादि नहीं करते, अतः वृक्षसे अभिन्न हैं, उसी तरह जगत और ब्रह्मका भेदाभेद स्वाभाविक है, यही श्रुति, स्मृति और सूत्रसे समर्थित होता है। इस तरह ये स्वाभाविक भेदाभेदवादी होकर भी जैनोंके अनेकान्तमें सत्त्व और असत्त्व दो धर्मोको विरोधदोषके भयसे नहीं मानना चाहते', यह बड़े आश्चर्यकी बात है ! जब इसके टोकाकार श्रीनिवासाचार्यसे प्रश्न किया गया कि 'आप भी तो ब्रह्ममें भेदाभेद मानते हो, १. “जैना वस्तुमात्रम् अस्तित्व नास्तित्वादिना विरुद्धधर्मद्वयं योजयन्ति; तन्नोपपद्यते; एकस्मिन् वस्तुनि सत्त्वासत्वादेविरुद्धधर्मस्य छायातपवत् युगपदसंभवात् ।" -ब्रह्मसू० नि० भा० ॥२॥३३ । २. "ननु भवन्मतेऽपि एकस्मिम् धर्मिणि विरुद्धधर्मद्वयाङ्गीकारोऽस्ति, तथा सर्व खल्विदं ब्रह्म इत्यादिषु एकत्वं प्रतिपाद्यते। प्रधानक्षेत्रशपतिर्गुणेशः द्वासुपर्णा इत्यादावनेकञ्च प्रतिपाद्यते, इति चेत् ; न; अस्यार्थस्य युक्तिमूलत्वाभावात् , श्रुतिभिरेव परस्पराविरोधेन
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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