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________________ स्याद्वाद-मीमांसा ५५७ नहीं' इस रूपसे उभयात्मकतामें भी उभयात्मकता है। पदार्थका प्रत्येक अंश और उसको ग्रहण करनेवाला नय अपनेमें सुनिश्चित होता है । अब भास्कर-भाष्य का यह शंका समाधान देखिएप्रश्न-'भेद और अभेदमें' तो विरोध है ? उत्तर-यह प्रमाण और प्रमेयतत्त्वको न समझनेवालेको शंका है !....."जो वस्तु प्रमाणसे जिस रूपमें परिच्छिन्न हो, वह उसी रूप है ! गौ, अश्व आदि समस्त पदार्थ भिन्नाभिन्न ही प्रतीत होते हैं ! वे आगे लिखते हैं कि सर्वथा अभिन्न या भिन्न पदार्थ कोई दिखा नहीं सकता। सत्ता, ज्ञेयत्व और द्रव्यत्वादि सामान्यरूपसे सब अभिन्न हैं और व्यक्तिरूपसे परस्पर विलक्षण होनेके कारण भिन्न । जब उभयात्मक वस्तु प्रतीत हो रही है, तब विरोध कैसा? विरोध या अविरोध प्रमाणसे ही तो व्यवस्थापित किये जाते हैं। यदि प्रतीतिके बलसे एकरूपता निश्चित की जाती है तो द्विरूपता भी जब प्रतीत होती है तो उसे भी मानना चाहिये। 'एकको एकरूप ही होना चाहिये' यह कोई ईश्वराज्ञा नहीं है । प्रश्न-शीत और उष्णस्पर्शको तरह भेद और अभेदमें विरोध क्यों नहीं है ? उत्तर-यह आपकी बुद्धिका दोष है, वस्तुमें कोई विरोध नहीं है ? छाया और आतपकी तरह सहानवस्थान विरोध तथा शीत और उष्णकी तरह भिन्नदेशवर्तित्वरूप विरोध कारणब्रह्म तथा कार्यप्रपंचमें नहीं हो सकता; क्योंकि वह ही उत्पन्न होता है, वही अवस्थित है और वही प्रलय होता है। यदि विरोध होता, तो ये तीनों नहीं बन सकते थे। अग्निसे १. “यदप्युक्तं भेदामेदयोर्विरोध इति; तदभिधीयते, अनिरूपितप्रमाणप्रमेयतत्त्वस्येदं चोद्यम् । ....... यत्प्रमाणैः परिच्छिन्नमविरुद्धं हि तत्तथा। वस्तुजातं गवाश्वादि भिन्नाभिन्नं प्रतीयते।"-भास्करभा० पृ० १६ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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