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जैनदर्शन
कि 'इसमें कोई विरोध नहीं है, लक्षणभेदसे दोनों रूप हो सकते हैं । स्वतंत्रत्वेन वह कर्त्ता है और ज्ञानका विषय होनेसे कर्म है ।' अविरोधी अनेक धर्म माननेमें तो इन्हें कोई सीधा विरोध है ही नहीं ।
श्रीभास्कर भट्ट और स्याद्वाद :
ब्रह्मसूत्रके भाष्यकारोंमें भास्कर भट्ट भेदाभेदवादी माने जाते हैं । इनने अपने भाष्यमें शंकराचार्यका खण्डन किया है । किन्तु "नैकस्मिन्नसम्भवात् " सूत्रमें आर्हतमतकी समीक्षा करते समय ये स्वयं भेदाभेदवादी होकर भी शंकराचार्यका अनुसरण करके सप्तभंगीमें विरोध और अनवधारण नामके दूषण देते हैं । वे कहते हैं कि "सब अनेकान्तरूप है, ऐसा निश्चय करते हो या नहीं ? यदि हाँ, तो यह एकान्त हो गया, और यदि नहीं; तो निश्चय भी अनिश्चयरूप होनेसे निश्चय नहीं रह जायगा । अतः ऐसे शास्त्रके प्रणेता तीर्थङ्कर उन्मत्ततुल्य हैं ।"
आश्चर्य होता है इस अनूठे विवेकपर ! जो स्वयं जगह-जगह भेदाभेदात्मक तत्त्वका समर्थन उसी पद्धतिसे करते हैं जिस पद्धतिसे जैन, वे ही अनेकान्तका खण्डन करते समय सब भूल जाते है । मैं पहले लिख चुका हूँ कि स्याद्वादका प्रत्येक भङ्ग अपने दृष्टिकोणसे सुनिश्चित है । अनेकान्त भी प्रमाणदृष्टिसे ( समग्रदृष्टिसे ) अनेकान्तरूप है और नयदृष्टिसे एकान्तरूप है । इसमें अनिश्चय या अनवधारणको क्या बात है ? एक स्त्री अपेक्षाभेदसे 'माता भी है और पत्नी भी, वह उभयात्मक है' इसमें उस कुतर्कीको क्या कहा जाय, जो यह कहता है कि 'उसका एकरूप निश्चित कीजिये - या तो माता कहिये या फिर पत्नी ?' जब हम उसका उभयात्मकरूप निश्चितरूपसे कह रहे हैं, तब यह कहना कि 'उभयात्मकरूप भी उभात्मक होना चाहिये; यानी 'हम निश्चित रूपसे उभयात्मक नहीं कह सकते; इसका सीधा उत्तर है कि 'वह स्त्री उभयात्मक है, एकात्मक