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________________ ५२० जैनदर्शन चाहते हैं तो किसी भी दर्शनकी समीक्षा उसके ठीक स्वरूपको समझकर करनी चाहिये । वे 'अवक्तव्य' नामक धर्मको, जो कि 'अस्ति' आदिके साथ स्वतन्त्र भावसे द्विसंयोगो हुआ है, तोड़कर अ-वक्तव्य करके उसका संजयके 'नहीं' के साथ मेल बैठा देते हैं और 'संजयके घोर अनिश्चयवादको ही अनेकान्तवाद कह डालते हैं ! किमाश्चमर्यमतः परम् !! डॉ० सम्पूर्णानन्दका मत : डॉ० सम्पूर्णानन्दजो 'जैनधर्म' पुस्तकको प्रस्तावना (पृ०३ ) में अनेकान्तवादको ग्राह्यता स्वीकार करके भी सप्तभंगो न्यायको बालकी खाल निकालनेके समान आवश्यकतासे अधिक बारीकीमें जाना समझते हैं। पर सप्तभंगीको आजसे अढाई हजार वर्ष पहलेके वातावरणमें देखनेपर वे स्वयं उसे समयकी मांग कहे बिना नहीं रह सकते। उस समय आबाल-गोपाल प्रत्येक प्रश्नको सहज ही 'सत्, असत्, उभय और अनुभय' इस चार कोटियोंमें गूंथकर ही उपस्थित करते थे और उस समयके आचार्य उत्तर भी उस चतुष्कोटिका 'हाँ' या 'ना' में देते थे। तीर्थंकर महावीरने मूल तीन भंगोंके गणितके नियमानुसार अधिक-से-अधिक अपुनरुक्त सात भंग बनाकर कहा कि वस्तु अनेकान्तात्मक है-उसमें चार विकल्प भी बराबर सम्भव हैं। 'अवक्तव्य, सत् और असत् इन तीन मूलधर्मोके सात भंग हो हो सकते है। इन सब सम्भव प्रश्नोंका समाधान करना ही सप्तभंगीका प्रयोजन है। यह तो जैसे-को-तैसा उत्तर है । अर्थात् चार प्रश्न तो क्या सात प्रश्नोंकी भी कल्पना करके एक-एक धर्मविषयक १. जैन कथाग्रन्थोंमें महावीरके बालजीवनकी एक घटनाका वर्णन मिलता है कि संजय और विजय नामके दो साधुओंका संशय महावीरको देखते ही नष्ट हो गया था, इसीलिए इनका नाम 'सन्मति' रखा गया था । सम्भव है, ये संजय, संजयवेलट्ठिपुत्त ही हों और इन्हींके संशय या अनिश्चयका नाश महावीरके सप्तभंगीन्यायसे हुआ हो। यहाँ 'वेलट्ठिपुत्त' विशेण अपभ्रष्ट होकर विजय नामका दूसरा साधु बन गया है।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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