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स्याद्वाद-मीमांसा
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या अज्ञानवादसे स्याद्वादका अन्तर है । ये तो तीन और छह (३६) की तरह परस्पर विमुख है । स्याद्वाद संजयके अज्ञान और अनिश्चयका हो तो उच्छेद करता है । साथ-ही-साथ तत्त्वमें जो विपर्यय और संशय है। उनका भी समूल नाश कर देता है । यह देखकर तो और भो आश्चर्य होता है कि आप (पृ० ४८४ में ) अनिश्चिततावादियोंकी सूचीमें संजयके साथ निग्गंठनाथपुत्त ( महावीर ) का नाम भी लिख जाते है तथा ( पृ० ४६१ में ) संजयको अनेकान्तवादी भी। क्या इसे धर्मकीतिके शब्दोंमें 'धिग् व्यापकं तमः' नहीं कह सकते ? 'स्यात्' का अर्थ शायद, संभव या कदाचित् नहीं: _'स्यात्' शब्दके प्रयोगसे साधारणतया लोगोंको संशय, अनिश्चय और संभावनाका भ्रम होता है। पर यह तो भाषाको पुरानो शैली है उस प्रसंगको, जहाँ एक वादका स्थापन नहीं किया जाता । एकाधिक भेद या विकल्पको सूचना जहाँ करनी होती है वहाँ "सिया' ( स्यात् ) पदका प्रयोग भाषाकी विशिष्ट शैलीका एक रूप रहा है । जैसा कि मज्झिमनिकायके महाराहुलोवादसुत्तके अवतरणसे विदित होता है। इसमें तेजोधातुके दोनो सुनिश्चित भेदोंकी सूचना 'सिया' शब्द देता है, न कि उन भेदोंका अनिश्चय, मंशय या सम्भावना व्यक्त करता है । इसी तरह 'स्यादस्ति' के साथ लगा हुआ 'स्यात्' शब्द 'अस्ति' की स्थितिको निश्चित अपेक्षासे दृढ़ तो करता ही है, साथ-ही-साथ अस्तिसे भिन्न और भी अनेक धर्म वस्तुमें है, पर वे विवक्षित न होनेसे इस समय गौण है, इस सापेक्ष स्थितिको भी बताता है। ___राहुलजीने 'दर्शनदिग्दर्शन' में सप्तभंगीके पांचवें,छठे और सातवें भंगको जिस अशोभन तरीकेसे तोड़ा-मरोड़ा है वह उनकी अपनी निरी कल्पना और साहस है । जब वे दर्शनको व्यापक, नई और वैज्ञानिक दृष्टिसे देखना
१. देखो, पृ० ५३ ।