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जैनदर्शन नाभावी है और एक अनेकका अविनाभावी है' यह स्थापित करना ही अनेकान्तका मुख्य लक्ष्य है । इसी विशेष हेतुसे प्रमाणाविरोधी विधिप्रतिषेधकी कल्पनाको सप्तभंगी कहते है। ___ इस भारतभूमिमे विश्वके सम्वन्धसे सत्, असत्, उभय और अनुभय ये चार पक्ष वैदिककालसे ही विचारकोटिमे रहे है । "सदेव सौम्येदमग्र आसीत्” ( छान्दो० ६।२ ) "असदेवेदमग्र आसीत्" ( छान्दो० ३।१६।१ ) इत्यादि वाक्य जगत्के सम्बन्धमे सत् और असत् रूपसे परस्परविरोधी दो कल्पनाओको स्पष्ट उपस्थित कर रहे है । तो वही सत् और असत् इस उभयरूपताका तथा इन सबसे परे वचनागोचर तत्त्वका प्रतिपादन करनेवाले पक्ष भी मौजूद थे। बुद्धके अव्याकृतवाद और संजयके अज्ञानवादमे इन्ही चार पक्षोके दर्शन होते है। उस समयका वातावरण ही ऐसा था कि प्रत्येक वस्तुका स्वरूप 'सत्, असत्, उभय और अनुभय' इन चार कोटियोसे विचारा जाता था । भगवान् महावीरने अपनी विशाल और उदार तत्त्वदृष्टिमे वस्तुके विराटरूपको देखा और बताया कि वस्तुके अनन्तधर्ममय स्वरूपसागरमे ये चार कोटियाँ तो क्या, ऐसी अनन्त. कोटियां लहरा रही है।
अपुनरुक्त भंग सात हैं : ___ चार कोटियोमे तीसरी उभयकोटि तो सत् और असत् दो को मिलाकर बनाई गई है। मूल भङ्ग तो तीन ही है-सत्, असत् और अनुभय अर्थात् अवक्तव्य । गणितके नियमके अनुसार तीनके अपुनरुक्त विकल्प सात ही हो सकते है, अधिक नही । जैसे-सोठ, मिरच और पीपलके प्रत्येकप्रत्येक तीन स्वाद और द्विसंयोगी तीन-( सोठ-मिरच, सोठ-पीपल
और मिरच-पीपल ) तथा एक त्रिसंयोगी ( सोठ-मिरच-पीपल मिलाकर ) इस तरह अपुनरुक्त स्वाद सात ही हो सकते है, उसी तरह सत्, असत् और अनुभय ( अवक्तव्य ) के अपुनरुक्त भंग सात ही हो