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सप्तभंगी
४९७ इसी तरह 'अन्यानन्यात्मक और पृथक्त्वापृथक्त्वात्मक तत्त्वको भी व्याख्या कर लेनी चाहिये।
धर्म-धर्मिभावका व्यवहार भले ही आपेक्षिक हो, पर स्वरूप लो स्वतःसिद्ध ही है । जैसे-एक ही व्यक्ति विभिन्न अपेक्षाओंसे कर्ता, कर्म, करण आदि कारकरूपसे व्यवहार में आता है, पर उस व्यक्तिका स्वरूप स्वतःसिद्ध ही हुआ करता है; उसी तरह प्रत्येक पदार्थमे अनन्तधर्म स्वरूपसिद्ध होकर भी परको अपेक्षासे व्यवहारमें आते है।
निष्कर्ष इतना ही है कि प्रत्येक अखण्ड तत्त्व या द्रव्यको व्यवहारमें उतारनेके लिये उसका अनेक धर्मोके आकारके रूपमें वर्णन किया जाता है । उस द्रव्यको छोड़कर धर्मोकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। दूसरे शब्दोंमें अनन्त गुण, पर्याय और धर्मोको छोड़कर द्रव्यका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। कोई ऐसा समय नहीं आ सकता, जब गुणपर्यायशून्य द्रव्य पृथक् मिल सके, या द्रव्यसे भिन्न गुण और पर्यायें दिखाई जा सकें। इस तरह स्याद्वाद इस अनेकान्तरूप अर्थको निर्दोषपद्धतिसे वचनव्यवहारमें उतारता है और प्रत्येक वाक्यकी सापेक्षता और आंशिक स्थितिका बोध कराता है।
सप्तभंगी:
वस्तुको अनेकान्तात्मकता और भाषाके निर्दोष प्रकार-स्याद्वादको समझ लेनेके बाद सप्तभंगीका स्वरूप समझनेमें आसानी हो जाती है । 'अनेकान्त' में यह बतलाया गया है कि वस्तुमें सामान्यतया विभिन्न अपेक्षाओंसे अनन्तधर्म होते है। विशेषतः अनेकान्तका प्रयोजन 'प्रत्येक धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्मके साथ वस्तुमें रहता है' यह प्रतिपादन करना ही है। यों तो एक पुद्गलमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, हलका, भारी, सत्त्व, एकत्व आदि अनेक धर्म गिनाये जा सकते है । परन्तु 'सत्' अमत्का अवि१. आप्तमी० श्लो०६१। २. आप्तमी० श्लो० २८। ३. आप्तमो. श्लो० ७३-७५ ।
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