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स्याद्वाद
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हैं ! किमाश्चर्यमतः परम् । यहाँ धमकीर्तिका यह श्लोकांश ध्यानमें
आ जाता है
“यदीयं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् ।
- प्रमाणवा० २१२१० ।
अर्थात् यदि यह चित्ररूपता - अनेकधर्मता वस्तुको स्वयं रुच रही है, उसके बिना उसका अस्तित्व ही संभव नहीं है, तो हम बीचमें काजी बननेवाले कौन ? जगतका एक-एक कण इस अनन्तधर्मताका आकर है । हमें तो सिर्फ अपनी दृष्टिको ही निर्मल और विशाल बनानेकी आवश्यकता है । वस्तुमें विरोध नहीं है । विरोध तो हमारी दृष्टियोंमें है । और इस दृष्टिविरोध- ज्वरकी अमृता (गुरबेल ) 'स्यात्' शब्द है, जो रोगीको तत्काल कटु तो अवश्य लगती है, पर इसके बिना यह दृष्टि-विषमज्वर उत्तर भी नहीं सकता ।
वस्तुकी अनन्तधर्मात्मकता :
'वस्तु अनेकान्तरूप है' यह बात थोड़ा गम्भीर विचार करते ही अनुभवमें आ जाती है, और यह भी प्रतिभासित होने लगता है कि हमारे क्षुद्र ज्ञानने कितनी उछलकूद मचा रखी है तथा वस्तुके विराट् स्वरूपके साथ खिलवाड़ कर रखी है । पदार्थ भावरूप भी है और अभावरूप भी है । यदि सर्वथा भावरूप माना जाय, यानी द्रव्यकी तरह पर्यायको भी भावरूप स्वीकार किया जाय, तो प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव इन चार अभावोंका लोप हो जानेसे पर्यायें भी अनादि, अनन्त और सर्वसंकररूप हो जायेंगी तथा एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप होकर प्रतिनियत द्रव्यव्यवस्थाको ही समाप्त कर देगा ।
प्रागभाव :
कोई भी कार्य अपनी उत्पत्तिके पहले 'असत्' होता है । वह कारणों