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जैनदर्शन
तो किया ही नहीं, किन्तु उसके स्वरूपका 'शायद, संभव और कदाचित्' जैसे भ्रष्ट पर्यायोंसे विकृत करनेका अशोभन प्रयत्न अवश्य किया है,
और आजतक किया जा रहा है। विरोध-परिहार: ___ सबसे थोथा तर्क तो यह दिया जाता है कि 'घड़ा जब अस्ति है, तो नास्ति कैसे हो सकता है ? घड़ा जब एक है तो अनेक कैसे हो सकता है ? यह तो प्रत्यक्ष-विरोध है ।' पर विचार तो करो-घड़ा आखिर 'घड़ा' ही तो है, कपड़ा तो नहीं है, कुरसी तो नहीं है, टेविल तो नहीं है । तात्पर्य यह कि वह घटसे भिन्न अनन्त पदार्थोंरूप नहीं है। तो यह कहने में आपको क्यों संकोच होता है कि 'घड़ा अपने स्वरूपसे अस्ति है और स्वभिन्न पररूपोंसे नास्ति है।' इस घड़ेमें अनन्त पररूपकी अपेक्षा 'नास्तित्व' है, अन्यथा दुनियां में कोई शक्ति ऐसी नहीं; जो घड़ेको कपड़ा आदि बन से रोक सकती। यह नास्तित्व धर्म ही घड़ेको घड़ेके रूपमें कायम रखता है। इसी नास्ति धर्मकी सूचना 'अस्ति' के प्रयोग कालमें 'स्यात्' शब्द देता है । इसी तरह 'घड़ा समग्र भावसे एक होकर भी अपने रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, छोटा, बड़ा, हलका, भारी आदि अनन्त गुण, और धर्मोकी दृष्टिसे अनेक रूपोंमें दिखाई देता है या नहीं ?' यह आप स्वयं बतावें । यदि अनेक रूपमें दिखाई देता है तो आपको यह मानने
और कहने में क्यों कष्ट होता है कि 'घड़ा द्रव्यरूपसे एक होकर भी अपने गुण धर्म और शक्ति आदिकी दृष्टिसे अनेक है।' जब प्रत्यक्षसे वस्तुमें अनेक विरोधी धर्मोका स्पष्ट प्रतिभास हो रहा है, वस्तु स्वयं अनन्त विरोधी धर्मोका अविरोधी क्रीड़ास्थल है, तब हमें क्यों संशय और विरोध उत्पन्न करना चाहिये ? हमें उसके स्वरूपको विकृतरूपमें देखनेकी दुर्दष्टि तो नहीं करनी चाहिए। हम उस महान् ‘स्यात्' शब्दको, जो वस्तु के इस पूर्ण रूपकी झांकी सापेक्षभावसे बताता है, विरोध, संशय जैसी गालियोंसे दुरदुराते