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________________ नय-विचार ४७५ परिणामी स्वभावके कारण विकारी परिण मनमे पड़ी हुई है । यदि विकारका कारण परभावसंसर्ग हट जाय, तो वही निखरकर निर्मल, निर्लेप और खालिस शुद्ध बन सकती है। तात्पर्य यह कि हम शुद्धनिश्चयनयसे उम 'चित्' का यदि रागादि अशुद्ध अवस्थामे या गुणस्थानोकी शुद्धाशुद्ध अवस्थाओमे दर्शन करना चाहते है तो इन सबसे दृष्टि हटाकर हमे उस महाव्यापक मूलद्रव्यपर दृष्टि ले जानी होगी और उस समय कहना ही होगा कि 'ये रागादि भाव आन्माके यानी शुद्ध आत्माके नहीं है, ये तो विनाशी है, वह अविनाशी अनाद्यनन्त तत्त्व तो जुदा ही है।' समयसारका शुद्धनय इमी मूलतत्त्वपर दृष्टि रखता है। वह वस्तुके परिणमनका निषेध नहीं करता और न उम चित्के रागादि पर्यायोमे रुलनेका प्रतिपेधक ही है। किन्तु वह कहना चाहता है कि 'अनादिकालीन अशुद्ध कीट-कालिमा आदिसे विकृत बने हुए इस मोनेमे भी उस १०० टंचके सोनेकी शक्तिरूपसे विद्यमान आभापर एकबार दृष्टि तो दो, तुम्हे इस कीट-कालिमा आदिमे जो पूर्ण सुवर्णत्वकी बुद्धि हो रही है, वह अपने-आप हट जायगी। इस शुद्ध स्वरूपपर लक्ष्य दिये बिना कभी उसकी प्राप्तिको दिशामे प्रयत्न नहीं किया जा मकता। वे अबद्ध और अम्पष्ट या अमंयक्त विशेषणसे यही दिखाना चाहते है कि आत्माकी बद्ध, स्पष्ट और संयुक्त अवस्थाएँ बीचकी है, ये उसका त्रिकालव्यापी मूल स्वरूप नही है। उम एक 'चित्' का ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपसे विभाजन या उसका विशेषरूपमे कथन करना भी एक प्रकारका व्यवहार है, वह केवल समझने-ममझानेके लिये है। आप ज्ञानको या दर्शनको या चारित्र१. 'ववहारण दम्सइ णाणिस्स चरित्त दंसणं णाण । ण वि णाणं च चरित्तं ण दसणं जाणगो सुद्धो ॥ ७ ॥' -समयसार।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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