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जैनदर्शन किसी भी अन्य परिणमनको संभावना नहीं है, अतः वह 'चित्' अंश ही द्रव्यका यथार्थ परिचायक होता है। शुद्ध और अशुद्ध विशेषण भी उसमें नहीं लगते, क्योंकि वे उस अखण्ड चित्का विभाग कर देते हैं । इसलिये कहा है कि मैं अर्थात् 'चित्' न तो प्रमत्त है और न अप्रमत्त, न तो अशुद्ध है और न शुद्ध , वह तो केवल 'ज्ञायक' है । हाँ, उस शुद्ध और व्यापक 'चित्' का प्रथम विकास मुक्त अवस्थामें ही होता है। इसीलिये आत्माके विकारी रागादिभावोंकी तरह कर्मके उदय, उपशम, क्षयोपशम और क्षयसे होनेवाले भावोंको भी अनादि-अनन्त सम्पूर्ण द्रव्यव्यापी न होनेसे आत्माका स्वरूप या लक्षण नहीं माना गया और उन्हें भी वर्णादिकी तरह परभाव कह दिया गया है । न केवल उन अव्यापक परनिमित्तक रागादि विकारी भावोंको ‘पर भाव' ही कहा गया है, किन्तु पुद्गलनिमित्तक होनेसे 'पुद्गलको पर्याय' तक कह दिया गया है।
तात्पर्य इतना ही है कि ये सब बीचकी मंजिले हैं। आत्मा अपने अज्ञानके कारण उन-उन पर्यायोंको धारण अवश्य करता है, पर ये सब शुद्ध और मूलभूत द्रव्य नहीं है। आत्माके इस त्रिकालव्यापी स्वरूपको आचार्यने इसीलिये अबद्ध , अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त विशेषणोंसे व्यक्त किया है। यानी एक ऐसी 'चित्' है जो अनादिकालसे अनन्तकाल तक अपनी प्रवहमान मौलिक सत्ता रखती है। उस अखंड 'चित्' को हम न निगोदरूपमें, न नारकादि पर्यायोंमें, न प्रमत्त, अप्रमत्त आदि गुणस्थानोंमें, न केवलज्ञानादि क्षायिक भावोंमें और न अयोगकेवली अवस्थामें ही सीमित कर सकते हैं। उसका यदि दर्शन कर सकते हैं तो निरुपाधि, शुद्ध, सिद्ध अवस्थामें । वह मूलभूत 'चित्' अनादिकालसे अपने १. "ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो। ___ एवं भणंति सुद्धं णाओ जो सो उ सो चेव ॥६॥"-समयसार। २. "जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णयं णियदं ।
अयिसेसमजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणोहि ॥१४॥"-समयसार ।