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________________ सामान्यावलोकन ११ ग्रहके लिये जो दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि रूपमें रचा गया अङ्गबाह्य श्रुत है वह भी प्रमाण है, क्योंकि अर्थरूपमें यह श्रुत तीर्थङ्कर प्रणीत अङ्गप्रविष्टसे जुदा नहीं है । यानी इस अङ्गबाह्य श्रुतकी परम्परा चूँकि अङ्गविष्ट श्रुतसे बँधी हुई है, अतः उसीकी तरह प्रमाण है । जैसे क्षीरसमुद्रका जल घड़ेमें भर लेने पर मूलरूप में वह समुद्रजल ही रहता है ' । दोनों परंपराओंका आगमश्रुत: वर्तमान में जो आगम श्रुत श्वेताम्बर परम्पराको मान्य है उसका अंतिम संस्करण वलभीमें वीर निर्वाण संवत् ९८० मे हुआ था । विक्रम की ६वीं शताब्दी में यह संकलन देवद्विगणि क्षमाश्रमणने किया था । इस समय जो त्रुटित अत्रुटित आगम-वाक्य उपलब्ध थे, उन्हें पुस्तकारूढ़ किया गया । उनमें अनेक परिवर्तन, परिवर्धन और संशोधन हुए। एक बात खास ध्यान देनेकी है कि महावीरके प्रधान गणधर गौतमके होते हुए भी इन आगमोंकी परम्परा द्वितीय गणधर सुधर्मा स्वामीसे जुड़ी हुई है । जब कि दिगम्बर परम्पराके सिद्धान्त-ग्रन्थोंका सम्बन्ध गौतम स्वामीसे है । यह भी एक विचारणीय बात है कि श्वेताम्बर परम्परा जिस दृष्टिवाद श्रुतका उच्छेद मानती है उसी दृष्टिवाद श्रुतके अग्रायणीय और ज्ञानप्रवाद पूर्वसे षट्खंडागम, महाबन्ध, कसायपाहुड आदि दिगम्बर सिद्धान्त-ग्रन्थोंकी रचना हुई है । यानि जिस श्रुतका श्वेताम्बर परम्परामें लोप हुआ उस ." तदेतत् श्रुतं द्विभेदमनेकभेदं द्वादशभेदमिति । विकृतोऽयं विशेष: ? वक्तृविशेषकृतः । त्रयो वक्तारः–सर्वद्मतीर्थकर : इतरो वा श्रुतकेवली, आरातीयश्चेति । तत्र सर्वशेन परमर्पिणा परमाचिन्त्य केवलशानविभूतिविशेषेण अर्थत आगम उपदिष्टः । तस्य प्रत्यक्षदशित्वात्प्रक्षीणदोपत्वाच्च प्रामाण्यम् । तम्य साक्षाच्छिष्येषु द्वर्यातिशयधियुक्तेर्गणधरैः श्रुतकेवलिभिरनुस्मृतग्रन्थरचनमङ्गपूर्वलक्षणम् तत्प्रमाणं, तत्प्रामायात् । आरातीयैः पुनराचार्यैः कालदापान्मङ्क्षिप्तायु मतिबलशिष्यानुग्रहार्थं दशवैकालिकाद्युपनिबद्धम्, तत्प्रमाणमर्थतस्तदेवेदमिति क्षीरार्णवजलं गृहीतमित्र । ” – सर्वार्थसिद्धि १।२० । घट
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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