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नय-विचार
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पर्याय नहीं मानता। यहाँ पर्यायशब्दका प्रयोग व्यवहारार्थ है । तात्पर्य यह है कि एकद्रव्यगत अभेदको द्रव्यास्तिक और परमार्थ द्रव्याथिक, एकद्रव्यगत पर्यायभेदको पर्यायास्तिक और व्यवहार पर्यायार्थिक, अनेकद्रव्योंके सादृश्यमूलक अभेदको व्यवहार द्रव्यार्थिक तथा अनेकद्रव्यगत भेदको परमार्थ पर्यायाथिक जानता है। अनेकद्रव्यगत भेदको हम 'पर्याय' शब्दसे व्यवहारके लिए ही कहते है । इस तरह भेदाभेदात्मक या अनन्तधर्मात्मक ज्ञेयमे ज्ञाताके अभिप्रायानुसार भेद या अभेदको मुख्य और इतरको गौण करके द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयोंकी प्रवृत्ति होती है। कहाँ, कौन-सा भेद या अभेद विवक्षित है, यह ममझना वक्ता और श्रोताकी कुशलतापर निर्भर करता है।
यहाँ यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि परमार्थ अभेद एकद्रव्यमें ही होता है और परमार्थ भेद दो स्वतन्त्र द्रव्योमे। इसी तरह व्यावहारिक अभेद दो पृथक् द्रव्योंमे सादृश्यमूलक होता है और व्यावहारिक भेद एकद्रव्यके दो गुणों, धर्मों या पर्यायोंमे परस्पर होता है । द्रव्यका अपने गुण, धर्म और पर्यायोसे व्यावहारिक भेद ही होता है, परमार्थतः तो उनकी सत्ता अभिन्न ही है। तीन प्रकारके पदार्थ और निक्षेप :
तीर्थकरों के द्वारा उपदिष्ट समस्त अर्थका मंग्रह इन्हीं दो नयोंमें हो जाता है। उनका कथन या तो अभेदप्रधान होता है या भेदप्रधान । जगतमें ठोस और मौलिक अस्तित्व यद्यपि द्रव्यका है और परमार्थ अर्थसंज्ञा भी इसी गुण-पर्यायवाले द्रव्यको दी जाती है । परन्तु व्यवहार केवल परमार्थ अर्थसे ही नहीं चलता । अतः व्यवहारके लिये पदार्थोका निक्षेप शब्द, ज्ञान और अर्थ तीन प्रकारसे किया जाता है । जाति, द्रव्य, गुण, क्रिया आदि निमित्तोंकी अपेक्षा किये बिना ही इच्छानुसार संज्ञा रखना 'नाम' कहलाता है। जैसे-किसी लड़केका 'गजराज' यह नाम शब्दात्मक अर्थका आधार
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