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________________ ४४८ जैनदर्शन तीय अनेक द्रव्योंका सादृश्यमूलक अभेदसे संग्रह केवल व्यावहारिक है, पारमार्थिक नहीं । अनन्त पुद्गलपरमाणुद्रव्योंको पुद्गलत्वेन एक कहना व्यवहारके लिये है । दो पृथक् परमाणुओं की सत्ता कभी भी एक नहीं हो सकती । एक द्रव्यगत ऊर्ध्वतासामान्यको छोड़कर जितनी भी अभेदकल्पनाएँ अवान्तरसामान्य या महासामान्यके नामसे की जाती हैं, वे सब व्यावहारिक है । उनका वस्तुस्थितिसे इतना ही सम्बन्ध है कि वे शब्दों के द्वारा उन पृथक् वस्तुओं का संग्रह कर रहीं है । जिस प्रकार अनेकद्रव्यगत अभेद व्यावहारिक है उसी तरह एक द्रव्यमें कालिक पर्यायभेद वास्तविक होकर भी उनमें गुणभेद और धर्मभेद उस अखंड अनिर्वचनीय वस्तुको समझने-समझाने और कहनेके लिये किया जाता है। जिस प्रकार पृथक् सिद्ध द्रव्यों को हम विश्लेषणकर अलग स्वतन्त्रभावसे गिना सकते हैं उस तरह किसी एक द्रव्यके गुण और धर्मोंकों नहीं बता सकते । अतः परमार्थद्रव्यार्थिकनय एकद्रव्यगत अभेदको विषय करता है, और व्यवहार पर्यायाथिक एकद्रव्यको क्रमिक पर्यायोंके कल्पित भेदको । व्यवहारद्रव्यार्थिक अनेकद्रव्यगत कल्पित अभेदको जानता है और परमार्थ पर्यायार्थिक दो द्रव्योंके वास्तविक परस्पर भेदको जानता है । वस्तुत; व्यवहारपर्यायार्थिककी सीमा एक द्रव्यगत गुणभेद और धर्मभेद तक ही है । द्रव्यास्तिक और द्रव्यार्थिक : तत्वार्थवार्तिक ( १।३३ ) में द्रव्याथिक के स्थान में आनेवाला द्रव्यास्तिक और पर्यायार्थिकके स्थानमें आनेवाला पर्यायास्तिक शब्द इसी सूक्ष्मभेदको सूचित करता है । द्रव्यास्तिकका तात्पर्य है कि जो एकद्रव्यके परमार्थ अस्तित्वको विषय करे और तन्मूलक ही अभेदका प्रख्यापन करे । पर्यायास्तिक एकद्रव्यकी वास्तविक क्रमिक पर्यायोंके अस्तित्वको मानकर उन्हीं के आधार से भेदव्यवहार करता है । इस दृष्टिसे अनेकद्रव्यगत परमार्थ भेदको पर्यायार्थिक विषय करके भी उनके भेदको किसी द्रव्यकी
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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