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जैनदर्शन करता है तो प्रमाणको ही सीमामें पहुँचता है और घटके रूप, रस आदिका विभाजन कर यदि घड़ेके रूपको मुख्यतया जानता है तो वह नय कहलाता है। प्रमाणके जाननेका क्रम एकदेशके द्वारा भो समग्रकी तरफ ही है, जब कि नय समग्रवस्तुको विभाजित कर उसके अंशविशेषकी ओर ही झुकता है। प्रमाण चक्षुके द्वारा रूपको देखकर भी उस द्वारसे पूरे घड़ेको आत्मसात् करता है और नय उस घड़ेका विश्लेषण कर उसके रूप आदि अंशोंके जाननेकी ओर प्रवृत्त होता है ? इसीलिये प्रमाणको सकलादेशी
और नयको विकलादेशी कहा है। प्रमाणके द्वारा जानी गई वस्तुको शब्दकी तरंगोंसे अभिव्यक्त करनेके लिये जो ज्ञानकी रुझान होती है वह नय है। नय प्रमाणका एकदेश है :
'नय प्रमाण है या अप्रमाण ?' इस प्रश्नका समाधान 'हाँ' और 'नहीं' में नहीं किया जा सकता है ? जैसे कि घड़ेमें भरे हुए समुद्रके जलको न तो समुद्र कह सकते हैं और न असमुद्र ही। नय प्रमाणसे उत्पन्न होता है, अतः प्रमाणात्मक होकर भी अंशग्राही होनेके कारण पूर्ण प्रमाण नहीं कहा जा सकता, और अप्रमाण तो वह हो ही नहीं सकता । अतः जैसे घड़ेका जल समुद्र कदेश है असमुद्र नहीं, उसी तरह नय भी प्रमाणकदेश है, अप्रमाण नहीं। नयके द्वारा ग्रहण की जानेवाली वस्तु भी न तो पूर्ण वस्तु कही जा सकती है और न अवस्तु; किन्तु वह 'वस्त्वेकदेश' ही हो सकती है। तात्पर्य यह कि प्रमाणसागरका वह अंश नय है जिसे ज्ञाताने अपने अभिप्रायके पात्रमें भर लिया है । उसका उत्पत्तिस्थान समुद्र ही है पर उसमें वह विशालता और समग्रता १. 'नायं वस्तु न चावस्तु वस्त्वंशः कथ्यते यतः । नाममुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथोच्यते ॥'
-त० श्लो० १४६। नयविवरण श्लो०६।