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________________ ९. नय-विचार नयका लक्षण : अधिगमके उपायोंमें प्रमाणके साथ नयका भी निर्देश किया गया है । प्रमाण वस्तुके पूर्णरूपको ग्रहण करता है और नय प्रमाणके द्वारा गृहीत वस्तुके एक अंशको जानता है । ज्ञाताका वह अभिप्रायविशेष नय' है जो प्रमाणके द्वारा जानी गयी वस्तु के एकदेशको स्पर्श करता है। वस्तु अनन्तधर्मवाली है। प्रमाणज्ञान उसे समग्रभावसे ग्रहण करता है, उसमें अंशविभाजन करनेकी ओर उसका लक्ष्य नहीं होता। जैसे 'यह घड़ा है। इन ज्ञानमें प्रमाण घड़ेको अखंड भावसे उसके रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि अनन्त गुणधर्मोका विभाग न करके पूर्णरूपमें जानता है, जब कि कोई भी नय उसका विभाजन करके रूपवान् घट:' 'रसवान् घट:' आदि रूपमें उसे अपने-अपने अभिप्रायके अनुसार जानता है । एक बात ध्यानमें रखनेकी है कि प्रमाण और नय ज्ञानको ही वृत्तियाँ है, दोनों ज्ञानात्मक पर्याय हैं । जब ज्ञाताकी सकलके ग्रहणको दृष्टि होती है तब उसका ज्ञान प्रमाण होता है और जब उसी प्रमाणसे गृहीत वस्तुको खंडशः ग्रहण करनेका अभिप्राय होता है तब वह अंशग्राही अभिप्राय नय कहलाता है। प्रमाणज्ञान नयकी उत्पत्तिके लिये भूमि तैयार करता है । ___ यद्यपि छद्मस्थोंके सभी ज्ञान वस्तुके पूर्णरूपको नहीं जान पाते, फिर भी जितनेको वह जानते हैं उनमें भी उनकी यदि समग्रके ग्रहणकी दृष्टि है तो वे सकलग्राही ज्ञान प्रमाण हैं और अंशग्राही विकल्पज्ञान नय । 'रूपवान् घटः' यह ज्ञान भी यदि रूपमुखेन समस्त घटका ज्ञान अखंडभावसे १. 'नयो शातुरभिप्रायः।'-लघी० श्लो० ५५। 'शातॄणामभिसन्धयः खलु नयाः।' -सिद्धिवि०, टो० पृ० ५१७ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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