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क्षणिकवादमीमांसा ग्रहसे विरक्ति लानेके लिये शाश्वत आत्माका ही निषेध करके नैरात्म्यका उपदेश दिया। उन्हें बड़ा डर था कि जिस प्रकार नित्य आत्माके मोहमें पगे अन्य तीथिक तृष्णामें आकंठ डूबे हुए हैं उस तरहके बुद्धके भिक्षु न हों और इसलिये उन्होंने बड़ी कठोरतासे आत्माकी शाश्वतिकता ही नहीं; आत्माका ही निषेध कर दिया। जगतको क्षणिक, शून्य, निरात्मक, अशुचि और दुःखरूप कहना भी मात्र भावनाएं हैं। किन्तु आगे जाकर इन्हीं भावनाओंने दर्शनका रूप ले लिया और एक-एक शब्दको लेकर एक-एक क्षणिकवाद, शून्यवाद, नैरात्म्यवाद आदि वाद खड़े हो गये । एक बार इन्हें दार्शनिक रूप मिल जानेपर तो उनका बड़े उग्ररूपमें समर्थन हुआ।
बुद्धने योगिज्ञानकी उत्पन्नि चार आर्यसत्योंकी भावनाके प्रकर्ष पर्यन्त गमनसे हो तो मानी है। उसमें दृष्टान्त भी दिया है कामुकका । जैसे कोई कामुक अपनी प्रियकामिनीकी तीव्रतम भावनाके द्वारा उसका सामने उपस्थितको तरह साक्षात्कार कर लेता है, उसी तरह भावनासे सत्यका साक्षात्कार भी हो जाता है । अतः जहाँ तक वैराग्यका सम्बन्ध है वहाँ तक जगतको क्षणिक और परमाणुपुंजरूप मानकर चलनेमें कोई हानि नहीं है; क्योंकि असत्योपाधिसे भी सत्य तक पहुँचा जाता है, पर दार्शनिकक्षेत्र तो वस्तुस्वरूपकी यथार्थ मोमांसा करना चाहता है। अतः वहाँ भावनाओंका कार्य नहीं है । प्रतीतिसिद्ध स्थिर और स्थूल पदार्थोंको भावनावश असत्यताका फतवा नहीं दिया जा सकता।
जिस क्रम और योगपद्यसे अर्थक्रियाकी व्याप्ति है वे सर्वथा क्षणिक पदार्थमें भी नहीं बन सकते। यदि पूर्वका उत्तरके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, तो उनमें कार्यकारणभाव ही नहीं बन सकता। अव्यभिचारी
१. भूतार्थभावनाप्रकर्षपर्यन्तजं योगिज्ञानम् ।'-न्यायवि० १३११ । २. 'कामशोकभयोन्मादचौरस्वप्नाद्युपप्लुताः ।
अभूतानपि पश्यन्ति पुरतोऽवस्थितानिव ॥'-प्रमाणवा० २।२८२ । २८