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जैनदर्शन वास्तविक कार्यकारणपरम्पराको ध्रुव कील है। इसीलिए निर्वाण अवस्थामें चित्तसन्ततिका सर्वथा उच्छेद नहीं माना जा सकता। दोपनिर्वाणका दृष्टान्त भी इसलिये उचित नहीं है कि दोपकका भी सर्वथा उच्छेद नहीं होता। जो परमाणु दीपक अवस्थामें भासुराकार और दोप्त थे वे बुझनेपर श्यामरूप और अदीप्त बन जाते है । यहाँ केवल पर्यायपरिवर्तन ही हुआ। किसी मौलिक तत्त्वका सर्वथा उच्छेद मानना अवैज्ञानिक है। ____ वस्तुतः बुद्धने विषयोंसे वैराग्य क्षौर ब्रह्मचर्यकी साधनाके लिये जगतके क्षणिकत्व और अनित्यत्वकी भावनापर इसलिये भार दिया था कि मोही और परिग्रही प्राणी पदार्थोंको स्थिर और स्थूल मानकर उनमें राग करता है, तृष्णासे उनके परिग्रहको चेष्टा करता है, स्त्री आदिको एक स्थिर और स्थूल पदार्थ मानकर उनके स्तन आदि अवयवोंमें रागदृष्टि गड़ाता है । यदि प्राणी उन्हें केवल हड्डियोंका डाँचा और मांसका पिंड, अन्ततः परमाणुपुंजके रूपमें देखे, तो उसका रागभाव अवश्य कम होगा। 'स्त्री' यह संज्ञा भी स्थूलताके आधारसे कल्पित होती है । अतः वीतरागताकी साधनाके लिये जगत और शरीरको अनित्यताका विचार और उसकी बार-बार भावना अत्यन्त अपेक्षित है । जैन साधुओंको भी चित्तमें वैराग्यकी दृढ़ताके लिये अनित्यत्व, अशरणत्व आदि भावनाओंका उपदेश दिया गया है। परन्तु भावना जुदो वस्तु है और वस्तुतत्त्वका निरूपण जुदा। वैज्ञानिक भावनाके बलपर वस्तुस्वरूपकी मीमांसा नहीं करता, अपितु सुनिश्चित कार्यकारणभावोंके प्रयोगसे । ___ स्त्रीका सर्पिणी, नरकका द्वार; पापकी खानि, नागिन और विषवेल आदि रूपसे जो भावनात्मक वर्णन पाया जाता है वह केवल वैराग्य जागृत करनेके लिये है, इससे स्त्री सर्पिणी या नागिन नहीं बन जाती। किसी पदार्थको नित्य माननेसे उसमें सहज राग पैदा होता है । आत्माको शाश्वत माननेसे मनुष्य उसके चिर सुखके लिये न्याय और अन्यायसे जैसे-बनेतैसे परिग्रहका संग्रह करने लगता है । अतः बुद्धने इस तृष्णामूलक परि