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जैनदर्शन
है कि वह उससे उत्पन्न हुआ है और उसका ही वह सर्वस्व है । जगत केवल प्रतीत्य-समुत्पाद ही है । ' इससे यह उत्पन्न होता है' यह अनवरत कारणकार्यपरम्परा नाम और रूप सभी में चालू है । निर्वाण अवस्था में भी यही क्रम चालू रहता है । अन्तर इतना ही है कि जो चित्तसन्तति सास्रव थो, वह निर्वाणमें निरास्रव हो जाती है ।
विनाशका भी एक अपना क्रम है । मुद्गरका अभिघात होनेपर जो घटक्षण आगे द्वितीय समर्थ घटको उत्पन्न करता था वह असमर्थ, असमर्थ - तर और असमर्थतम क्षणोंको उत्पन्न करता हुआ कपालकी उत्पत्ति में कारण हो जाता है । तात्पर्य यह कि उत्पाद सहेतुक है, न कि विनाश । चूंकि विनाशको किसी हेतुको अपेक्षा नहीं है, अतः वह स्वभावतः प्रतिक्षण होता ही रहता है ।
उत्तरपक्ष :
किन्तु क्षणिक परमाणुरूप पदार्थ मानने पर स्कन्ध अवस्था भ्रान्त ठहरती है । यदि पुञ्ज होने पर भी परमाणु अपनी परमाणुरूपता नहीं
१. दिग्नागादि आचार्यों द्वारा प्रतिपादित क्षणिकवाद इसी रूपमें बुद्धको अभिप्रेत न था, इस विषयकी चर्चा प्रो० दलसुखजीने जैन तर्कवा० टि० पृ० २८१ में इस प्रकार की है - 'इस विषय में प्रथम यह बात ध्यान देनेकी है कि भगवान् बुद्धने उत्पाद, स्थिति और व्यय इन तीनोंके भिन्न क्षण माने थे, ऐसा अंगुत्तरनिकाय और अभिधर्म ग्रन्थोंके देखनेसे प्रतीत होता है ( " उप्पादठित्तिभंगत्रसेन खणत्तयं एकचित्तक्खणं नाम । तानि पन सत्तरस चित्तक्खणानि रूपधम्मान आयु" - अभिघम्मत्थ० ४।८ ) अंगुत्तरनिकाय में संस्कृतके तीन लक्षण बताये गये हैं— संस्कृत वस्तुका उत्पाद होता है, व्यय होता है और स्थितिका अन्यथात्व होता है। इससे फलित होता है कि प्रथम उत्पत्ति. फिर जरा और फिर विनाश, इस क्रमसे वस्तुमें अनित्यता- क्षणिकता सिद्ध है ।... चित्तक्षण क्षणिक है, इसका अर्थ है कि वह तीन क्षण तक है। प्राचीन बौद्ध शास्त्र में मात्र चित्त-नाम ही को योगाचारक्की तरह वस्तुसत् नहीं माना है और उसकी आयु योगाचारकी तरह एकक्षण नहीं, स्वसम्मत चित्तकी तरह त्रिक्षण नहीं, किन्तु १७ क्षण मानी गई है। ये १७ क्षण भी समयके अर्थमें नहीं, किन्तु १७ चित्तक्षणके अर्थमें लिये गये हैं