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________________ ४२९ क्षणिकवादमीमांसा साथ संसर्ग रखवेवाले मध्यवर्ती परमाणुके छह देश कल्पना करने पड़ेंगे। अतः केवल परमाणुका सञ्चय ही इन्द्रियप्रतीतिका विषय होता है । ___ अर्थक्रिया ही परमार्थसत्का वास्तविक लक्षण है। कोई भी अर्थक्रिया या तो क्रमसे होती है या युगपत् । चूँकि 'नित्य और एकस्वभाववाले पदार्थमें न तो क्रमसे अर्थक्रिया सम्भव है और न युगपत् । अतः क्रम और योगपद्यके अभावमें उससे व्याप्त अर्थक्रिया निवृत्त हो जाती है और अर्थक्रियाके अभावमें उससे सत्त्व निवृत्त होकर नित्य पदार्थको असत् सिद्ध कर देता है । सहकारियोंकी अपेक्षा नित्य पदार्थमें क्रम इसलिये नहीं बन सकता; कि नित्य जब स्वयं समर्थ है; तब उसे सहकारियोंकी अपेक्षा ही नहीं होनी चाहिए। यदि सहकारी कारण नित्य पदार्थमें कोई अतिशय या विशेषता उत्पन्न करते है, तो वह सर्वथा नित्य नहीं रह सकता। यदि कोई विशेषता नहीं लाते; तो उनका मिलना और न मिलना बराबर ही रहा । नित्य एकस्वभाव पदार्थ जब प्रथमक्षणभावी कार्य करता है; तब अन्य कार्योके उत्पन्न करनेकी सामर्थ्य उसमें है, या नहीं? यदि है; तो सभी कार्य एकसाथ उत्पन्न होना चाहिए। यदि नहीं है और सहकारियोंके मिलनेपर वह सामर्थ्य आ जाती है; तो वह नित्य और एकरूप नहीं रह सकता। अतः प्रतिक्षण परिवर्तन-शील परमाणुरूप ही पदार्थ अपनी-अपनी सामग्रीके अनुसार विभिन्न कार्योंके उत्पादक होते हैं । चित्तक्षण भी इसी तरह क्षणप्रवाहरूप हैं, अपरिवर्तनशील और नित्य नहीं हैं। इसी क्षणप्रवाहमें प्राप्त वासनाके अनुसार पूर्वक्षण उत्तरक्षणको उत्पन्न करता हुआ अपना अस्तित्व निःशेष करता जाता है। एकत्व और शाश्वतिकता भ्रम है । उत्तरका पूर्वके साथ इतना ही सम्बन्ध १. 'क्रमेण युगपञ्चापि यस्मादर्थक्रियाकृतः । न भवन्ति स्थिरा भावा निःसत्त्वास्ते ततो मताः ॥' -तत्त्वसं० श्लो० ३९४ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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