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प्रमाणाभासमीमांसा
३९१ साय आदि प्रमाणाभास है; क्योंकि इनके द्वारा प्रवृत्तिके विषयका यथार्थ उपदर्शन नहीं होता। जो अस्वसंवेदी ज्ञान अपने स्वरूपको ही नहीं जानता वह पुरुषान्तरके ज्ञानकी तरह हमें अर्थबोध कैसे करा सकता है ? निर्विकल्पक दर्शन संव्यवहारानुपयोगी होनेके कारण प्रमाणकी कक्षामें शामिल नहीं किया जाता। वस्तुतः जब ज्ञानको प्रमाण माना है तब प्रमाण और प्रमाणाभासकी चिन्ता भी ज्ञानके क्षेत्रमें ही की जानी चाहिये । बौद्धमतमें शब्दयोजनाके पहलेवाले ज्ञानको या शब्दसंसर्गकी योग्यता न रखनेवाले जिस ज्ञानको निर्विकल्पक दर्शन शब्दसे कहा है, उस संव्यवहारानुपयोगी दर्शनको ही प्रमाणाभास कहना यहाँ इष्ट है, क्योंकि संव्यवहारके लिए ही अर्थक्रियार्थी व्यक्ति प्रमाणको चिन्ता करते है । धवलादि सिद्धान्त-ग्रन्थोंमें जिस निराकारदर्शनरूप आत्मदर्शनका विवेचन है, वह ज्ञानसे भिन्न, आत्माका एक पृथक् गुण है । अतः उसे प्रमाणाभास न कहकर प्रमाण और अप्रमाणके विचारसे बहिर्भूत ही रखना उचित है। ____ अविसंवादी और सम्यग्ज्ञानको प्रमाण कहा है। यद्यपि आचार्य माणिक्यनन्दिने प्रमाणके लक्षणमें अपूर्वार्थग्राही विशेपण दिया है और गृहीतग्राही ज्ञानको प्रमाणाभास भी घोपित किया है; पर उनके इस विचारसे विद्यानन्द आदि आचार्य सहमत नहीं है । अकलंकदेव ने भी कहीं प्रमाणके लक्षणमें अनधिगतार्थग्राही पद दिया है, पर उन्होंने इसे प्रमाणताका प्रयोजक नहीं माना। प्रमाणताके प्रयोजकके रूपमें तो उन्होंने अविसंवादका ही वर्णन किया है। अतः गृहीतग्राहित्व इतना बड़ा दोष नहीं कहा जा सकता, जिसके कारण वैसे ज्ञानको प्रमाणाभास-कोटिमें डाला जाय।
जब वस्तुके सामान्य धर्मका दर्शन होता है और विशेष धर्म नहीं दिखाई देते, किन्तु दो परस्पर विरोधी विशेषोंका स्मरण हो जाता है तब ज्ञान उन दो विशेष कोटियोंमें दोलित होने लगता है। यह संशय ज्ञान अनिर्णयात्मक होनेसे प्रमाणाभास है। विपर्यय ज्ञानमें विपरीत एक