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जैनदर्शन पूर्वज्ञान स्वयं उत्तरज्ञान रूपसे परिणत होकर फल बन जाता है। एक आत्मद्रव्यकी ही ज्ञान पर्यायोमे यह प्रमाणफलभावको व्यवस्था अपेक्षाभेदसे सम्भव होती है।
यदि प्रमाण और फलका सर्वथा अभेद माना जाता है तो उनमे एक व्यवस्थाप्य और दूसरा व्यवस्थापक, एक प्रमाण और दूसरा फल यह भेदव्यवहार नही हो सकता। मर्वथा भेद मानने पर आत्मान्तरके प्रमाणके साथ प्रात्मान्तरके फलमे जैसे प्रमाणफलव्यवहार नही होता, उसी तरह एक ही आत्माके प्रमाण और फलमे भी प्रमाण-फल व्यवहार नही हो सकेगा । अचेतन इन्द्रियादिके साथ चेतन ज्ञानमे प्रमाणफल व्यवहार तो प्रतीतिविरुद्ध है । जिसे प्रमाण उत्पन्न होता है, उसीका अज्ञान हटता है, वही अहितको छोडता है, हितका उपादान करता है और उपेक्षा करता है। इस तरह एक अनुस्यूत आत्माकी दृष्टिसे ही प्रमाण और फलमे कथञ्चित् अभेद कहा जा सकता है । आत्मा प्रमाता है, उसका अर्थपरिच्छित्तिमे साधकतम रूपमे व्याप्रियमाण स्वरूप प्रमाण है, तथा व्यापार प्रमिति है। इस प्रकार पर्यायकी दृष्टिसे उनमे भेद है । प्रमाणाभास:
ऊपर जिन प्रमाणोको चर्चा की गई है, उनके लक्षण जिनमे न पाये जाय, पर जो उनकी तरह प्रतिभासित हो वे सब प्रमाणाभास है। यद्यपि उक्त विवेचनसे पता लग जाता है कि कौन-कौन प्रमाणाभास है, फिर भी इस प्रकरणमे उनका स्पष्ट और संयुक्तिक विवेचन करना अपेक्षित है।
अस्वसंवेदी ज्ञान, निर्विकल्पक दर्शन, संशय, विपर्यय और अनध्यव१. 'यः प्रमिमीते स एव निवृत्ताशानी जहात्यादत्त उपेक्षते चेति प्रतीतेः ।'
-परीक्षामुख ५।३। २. 'अस्वसंविदितगृहीतार्थदर्शनसंशयादयः प्रमाणाभासाः।'
-परोक्षामुख ६२ ।