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प्राकृतशब्दोंकी साधुता
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'प्राकृत' शब्द स्वयं अपनी स्वाभाविकता और सर्वव्यवहार - मूलकताको कह रहा है । संस्कृतका अर्थ है संस्कार किया हुआ और प्राकृतका अर्थ है स्वाभाविक | किसी विद्यमान वस्तुमें कोई विशेषता लाना ही संस्कार कहलाता है और वह इस अर्थ में कृत्रिम ही है ।
"प्रकृतिः संस्कृतम्, तत्र भवं तत आगतं प्राकृतम्” प्राकृतकी यह व्युत्पत्ति व्याकरणकी दृष्टिसे है । पहले संस्कृत के व्याकरण बने है और पीछे प्राकृत व्याकरण । अतः व्याकरण-रचना में संस्कृत शब्दोंको प्रकृति मानकर, वर्णविकार वर्णागम आदिसे प्राकृत और अपभ्रंशके व्याकरणकी रचनाएं हुई हैं । किन्तु प्रयोगकी दृष्टिसे तो प्राकृत शब्द ही स्वाभाविक और जन्मसिद्ध हैं । जैसे कि मेघका जल स्वभावतः एकरूप होकर भी नीम, गन्ना आदि विशेष आधारोंमें संस्कारको पाकर अनेकरूपमें परिणत हो जाता है, उसी तरह स्वाभाविक सबकी बोली प्राकृत भाषा पाणिनि आदिके व्याकरणोंसे संस्कारको पाकर उत्तरकालमें संस्कृत आदि नामोंको पा लेती है । पर इतने मात्रसे वह अपने मूलभूत प्राकृत शब्दोंकी अर्थबोधक शक्तिको नहीं छीन सकती ।
अर्थबोधके लिए संकेत ही मुख्य आधार है । 'जिस शब्दका, जिस अर्थमें, जिन लोगोंने संकेत ग्रहण कर लिया है, उन शब्दोंसे उन लोगोंको
१. देखो, हेम० प्र०, प्राकृतसर्व०, प्राकृतच० वाग्भट्टा० टी० २२२ । नाट्यशा० १७/२ | त्रि० प्रा० १० १ । प्राकृतसं० ।
२. 'प्राकृतेति-सकलजगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कारः सहजो वचनव्यवहारः प्रकृतिः, तत्र भवं सैव वा प्राकृतम् । 'आरिसवयणसिद्धदेवाणं अद्धमग्गहा वाणी' इत्यादिवचनाद्वा प्राक् पूर्वं कृतं प्राक्कृतम्, बालमहिलादिसकलभाषानिबन्धनभूतं वचनमुच्यते मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरूपं तदेव च देशविशेषात् संस्कारकरणाच्च समासादितविशेष सत् संस्कृताद्युत्तर विभेदानाप्नोति । अत एव शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निर्दिष्टं तदनु संस्कृतादीनि । पाणिन्यादिव्याकरणोदितशब्दलक्षणेन संस्करणात् संस्कृतमुच्यते ।' - काव्या० रुद्र० नमि० २।२२ ।