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जैनदर्शन
उत्तर पक्ष :
" किन्तु जब अन्वय और व्यतिरेक द्वारा संस्कृत शब्दोंकी तरह प्राकृत और अपभ्रंश शब्दोंसे स्वतन्त्र भावसे अर्थप्रतीति और लोकव्यवहार देखा जाता है, तब केवल संस्कृत शब्दोंको साधु और वाचकशक्तिवाला बताना पक्षमोहका ही परिणाम है । जिन लोगोंने संस्कृत शब्दोंको स्वप्न में भी नहीं सुना है, वे निर्बाध रूपसे प्राकृत आदि भाषा-शब्दोंसे ही सीधा व्यवहार करते है । अत: उनमे वाचकशक्ति स्वसिद्ध ही माननी चाहिये । जिनकी वाचकशक्तिका उन्हे भान ही नहीं है उन शब्दोंका स्मरण मानकर अर्थबोधकी बात करना व्यवहारविरुद्ध तो है ही, कल्पनासंगत भी नहीं है । प्रमाद और अशक्तिसे प्राकृत शब्दोंका उच्चारण उन लोगोंका तो माना जा सकता है जो संस्कृत शब्दोंको धर्म मानते है, पर जिन असंख्य व्यवहारी लोगोंकी भाषा हो प्राकृत और अपभ्रंशरूप लोकभाषा है और यावज्जीवन वे उसीसे अपनो लोकयात्रा चलाते है, उनके लिए प्रमाद और अशक्तिसे भाषाव्यवहारकी कल्पना अनुभवविरुद्ध है । बल्कि कहीं कहीं तो जब बालकोंको संस्कृत पढ़ाई जाती है तब 'वृक्ष अग्नि' आदि संस्कृत शब्दोंका अर्थबोध, 'रूख आगी' आदि अपभ्रंश शब्दोंसे ही कराया जाता है ।
अनादिप्रयोग, विशिष्टपुरुषप्रणीतता, बाधारहितता, विशिष्टार्थवाचकता और प्रमाणान्तरसंवाद आदि धर्म संस्कृतकी तरह प्राकृतादि शब्दोंमें भी पाये जाते है ।
यदि संस्कृत शब्दके उच्चारणसे ही धर्म होता हो; तो अन्य व्रत, उपवास आदि धर्मानुष्ठान व्यर्थ हो जाते है ।
१. देखो, न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ७६२ ।
२. ' म्लेच्छादीनां साधुशब्दपरिज्ञानाभावात् कथं तद्विषया स्मृतिः ? तदभावे न गोऽर्थप्रतिपत्तिः स्यात् । - तत्त्वोप० पृ० १२४ ।
३. 'विपर्ययदर्शनाच्च १ - वादन्यायटी० पृ० १०५ ।