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जैनदर्शन अर्थापत्तिमें पक्ष में ही तुरन्त अविनाभावका निश्चय किया जाता है। अनुमानमें हेतुका पक्षधर्मत्व आवश्यक है जब कि अर्थापत्तिमें पक्षधर्म आवश्यक नहीं माना जाता । जैसे 'ऊपरकी ओर मेघवृष्टि हुई है, नीचे नदीका पूर अन्यथा नहीं आ सकता' यहाँ नीचे नदीपूरको देखकर तुरन्त ही उपरिवृष्टिकी जो कल्पना होती है उसमें न तो पक्षधर्म है और न पहलेसे किसी सपक्षमें व्याप्ति ही ग्रहण की गई है।
परन्तु इतने मात्रसे अपत्तिको अनुमानसे भिन्न नहीं माना जा सकता। अविनाभावी एक अर्थसे दूसरे पदार्थका ज्ञान करना जैसे अनुमानमें है वैसे अर्थापत्तिमें भी है। हम पहले बता चुके हैं कि पक्षधर्मत्व अनुमानका कोई आवश्यक अंग नहीं है। कृत्तिकोदय आदि हेतु पक्षधर्मरहित होकर भी सच्चे है और मित्रातनयत्व आदि हेत्वाभास पक्षधर्मत्वके रहने पर भी गमक नहीं होते। इसी तरह सपक्षमें पहलेसे व्याप्तिको ग्रहण करना इतनी बड़ी विशेषता नहीं है कि इसके आधारपर दोनोंको पथक प्रमाण माना जाय । और सभी अनुमानोंमें सपक्षमें व्याप्ति ग्रहण करना आवश्यक भी नहीं है। व्याप्ति पहले गृहीत हो या तत्काल; इससे अनुमानमें कोई अन्तर नहीं आता। अतः अर्थापत्तिका अनुमानमें अन्तर्भाव हो जाता। संभव स्वतन्त्र प्रमाण नहीं:
इसी तरह सम्भव प्रमाण यदि अविनाभावमूलक है तो वह अनुमानमें ही अन्तर्भूत हो जाता है। सेरमें छटाँककी सम्भावना एक निश्चित अविनाभावी मापके नियमोंसे सम्बन्ध रखती है। यदि वह अविनाभावके बिना ही होता है तो उसे प्रमाण ही नहीं कह सकते । अभाव स्वतन्त्र प्रमाण नहीं :
मीमांसक अभावको स्वतन्त्र प्रमाण मानते है। उनका कहना है कि