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________________ ३३६ जैनदर्शन अकस्मात् धूमदर्शनसे होनेवाला अग्निज्ञान प्रत्यक्ष नहीं : आ० प्रज्ञाकर' अकस्मात् धुआँ को देखकर होने वाले अग्निके ज्ञानको अनुमान न मानकर प्रत्यक्ष ही मानते हैं । उनका विचार है कि जब अग्नि और धूमकी व्याप्ति पहले ग्रहण नहीं की गई है, तब अगृहीतव्याप्तिक पुरुषको होनेवाला अग्निज्ञान अनुमानकी कोटिमें नहीं आना चाहिये । किन्तु जब प्रत्यक्षका इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्धसे उत्पन्न होना निश्चित है, तब जो अग्नि परोक्ष है और जिसके साथ हमारी इन्द्रियोंका कोई सम्बन्ध नहीं है, उस अग्निका ज्ञान प्रत्यक्षको मर्यादामें कैसे आ सकता है ? यह ठीक है कि व्यक्तिने 'जहाँ-जहाँ धूम होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है, अग्निके अभावमें धूम कभी नहीं होता' इस प्रकार स्पष्टरूपसे व्याप्तिका निश्चय नहीं किया है किन्तु अनेक बार अग्नि और धूमको देखनेके बाद उसके मनमें अग्नि और धूमके सम्बन्धके सूक्ष्म संस्कार अवश्य थे और वे ही सूक्ष्म संस्कार अचानक धुआँको देखकर उद्बुद्ध होते है और अग्निका ज्ञान करा देते है । यहाँ धूमका ही तो प्रत्यक्ष है, अग्नि तो सामने है ही नहीं । अतः इस परोक्ष अग्निज्ञानको सामान्यतया श्रुतमें स्थान दिया जा सकता है, क्योंकि इसमें एक अर्थसे अर्थान्तरका ज्ञान किया गया है । इसे अनुमान कहने में भी कोई विशेष बाधा नहीं है, क्योंकि व्याप्ति के सूक्ष्म संस्कार उसके मनपर अंकित थे ही। फिर यह ज्ञान अविशद है, अतः प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता । अर्थापत्ति अनुमानमें अन्तर्भूत है : मीमांसक अर्थापत्तिको पृथक् प्रमाण मानते है । किसी दृष्ट या श्रुत १. 'अत्यन्ताभ्यासतस्तस्य झटित्येव तदर्थदृक् । अकस्माद् धूमतो वह्निप्रतीतिरिव देहिनाम् ॥' २. मो० श्लो० अर्था० श्लो० १ । - प्रमाणवातिंकाल० २।१३९ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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