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जैनदर्शन
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पक्षप्रयोगकी आवश्यकता :
पक्षके प्रयोगको धर्मकीर्तिने असाधनाङ्गवचन कहकर निग्रहस्थान में शामिल किया है । इनका कहना है कि हेतुके पक्षधर्मत्व, सपक्ष सत्त्व और विपक्षव्यावृत्ति ये तीन रूप हैं। अनुमानके प्रयोगके लिये हमें हेतुके इस त्रैरूप्यका कथन करना ही पर्याप्त है और त्रिरूप हेतु ही साध्यसिद्धिके लिये आवश्यक है । 'जो सत् है वह क्षणिक है, जैसे घड़ा, चूँकि सभी पदार्थ सत् है' यह हेतुका प्रयोग बौद्धके मतसे होता है । इसमें हेतुके साथ साध्यकी व्याप्ति दिखाकर पीछे उसकी पक्षधर्मता ( पक्षमें रहना ) बताई गई है । दूसरा प्रकार यह भी है कि 'सभी पदार्थ सत् है, जो सत् है वह क्षणिक है, जैसे घड़ा' इस प्रयोग में पहले पक्षधर्मत्व दिखाकर पीछे व्याप्ति दिखाई गई है । तात्पर्य यह कि बौद्ध अपने हेतुके प्रयोगमें ही दृष्टान्त और उपनयको शामिल कर लेते हैं । वे हेतु दृष्टान्त और उपनय इन तीन अवयवोंको प्रकारान्तरसे मान लेते हैं । जहाँ वे केवल हेतुके प्रयोगकी बात करते हैं वहाँ हेतुप्रयोग के पेट में दृष्टान्त और उपनय पड़े ही हुए हैं । पक्षप्रयोग और निगमनको वे किसी भी तरह नहीं मानते; क्योंकि पक्षप्रयोग निरर्थक है और निगमन पिष्टपेषण है ।
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जैन तार्किकों का कहना है कि शिष्योंको समझाने के लिये शास्त्रपद्धति में आप योग्यताभेदसे दो, तीन, चार और पांच या इससे भी अधिक अवयव मान सकते हैं, पर वादकथामें, जहाँ विद्वानोंका ही अधिकार है, प्रतिज्ञा और हेतु ये दो ही अवयव कार्यकारी हैं । प्रतिज्ञाका प्रयोग किये बिना साध्यधर्म के आधार में सन्देह बना रह सकता है। बिना प्रतिज्ञाके
१. वादन्याय पृ० ६१ ।
२. 'विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवलः । - प्रमाणवा० १-२८ ।
३. 'बालव्युत्पत्यर्थं तत्त्रयोपगमे शास्त्र एवासौ न वादेऽनुपयोगात् ।'
- परीक्षामुख ३ -४१ ।