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अनुमानप्रमाणमीमांसा प्रयोगोंमें अविनाभावी साधनका कथन है । अतः इनमें से किसी एकका ही प्रयोग करना चाहिये।
पक्ष और प्रतिज्ञा तथा साधन और हेतुमे वाच्य और वाचकका भेद है । पक्ष और साधन वाच्य है तथा प्रतिज्ञा और हेतु उनके वाचक शब्द । व्युत्पन्न श्रोताको प्रतिज्ञा और हेतुरूप परोपदेशसे परार्थानुमान उत्पन्न होता है। अवयवोंकी अन्य मान्यताएँ:
परार्थानुमानके प्रतिज्ञा और हेतु ये दो ही अवयव है । परार्थानुमानके सम्बन्धमें पर्याप्त मतभेद है। नैयायिक प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन ये पाँच अवयव मानते हैं । न्यायभाष्यमें ( १।१।३२ ) जिज्ञासा, संशय, शक्यप्राप्ति, प्रयोजन और संशयव्युदास इन पांच अवयवोंका और भी अतिरिक्त कथन मिलता है। दशवैकालिकनियुक्ति ( गा० १३७ ) में प्रकरणविभक्ति, हेतुविभक्ति आदि अन्य ही दस अवयवोंका उल्लेख है। पाँच अवयववाले वाक्यका प्रयोग इस प्रकार होता है-'पर्वत अग्निवाला है, धूमवाला होनेसे, जो-जो धूमवाला है वह-वह अग्निवाला होता है जैसे कि महानस, उसी तरह पर्वत भी धूमवाला है, इसलिये अग्निवाला है।' सांख्य उपनय और निगमनके प्रयोगको आवश्यक नहीं मानते। मीमांसकोंका भी यही अभिप्राय है । मीमांसकोंकी उपनय पर्यन्त चार अवयव माननेकी परम्पराका उल्लेख भी जैनग्रन्थोंमें पूर्वपक्षरूपसे मिलता है। न्यायप्रवेश ( पृ० १, २ ) में पक्ष, हेतु और दृष्टान्त इन तीनका अवयव रूपसे उल्लेख मिलता है।
१. 'प्रतिशाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यववयाः।' -न्यायस्० १।१।३२ । २ देखो, सांख्यका० माठर वृ० पृ० ५ । ३. प्रमेयरत्नमाला ३३३७ ।