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तर्कप्रमाणमीमांसा पृथक्-पृथक् प्रमाण मानना होगा' । अतः इन सब विभिन्नविषयक संकलन ज्ञानोंको एक प्रत्यभिज्ञान रूपसे प्रमाण माननेमें ही लाघव और व्यवहार्यता है।
सादृश्यप्रत्यभिज्ञानको अनुमान रूपसे प्रमाण कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि अनुमान करते समय लिङ्गका सादृश्य अपेक्षित होता है । उस सादृक्ष्यज्ञानको भी अनुमान माननेपर उस अनुमानके लिङ्गसादृश्य ज्ञानको भी फिर अनुमानत्वको कल्पना होनेपर अनवस्था नामका दूपण आ जाता है। यदि अर्थमे सादृश्यव्यवहारको सदृशाकारमलक माना जाता है, तो सदृशाकारोंमे सदृश व्यवहार कैसे होगा ? अन्य तद्गतसदृशाकारसे सदृशव्यवहारकी कल्पना करनेपर अनवस्था नामका दूपण आता है। अतः सादृश्यप्रत्यभिज्ञानको अनुमान नहीं माना जा सकता।
प्रत्यक्ष ज्ञान विशद होता है और वर्तमान अर्थको विषय करनेवाला होता है । 'स एवाऽयम्' इत्यादि प्रत्यभिज्ञान चूंकि अतीतका भी संकलन करते है, अतः वे न तो विशद है और न प्रत्यक्षको सीमामे आने लायक ही । पर प्रमाण अवश्य है, क्योंकि अविसंवादी है और सम्यग्ज्ञान है । ३. तर्क:
व्याप्तिके ज्ञानको तर्क कहते है। साध्य और साधनके सार्वकालिक सार्वदेशिक और सार्वव्यक्तिक अविनाभावसम्बन्धको व्याप्ति कहते है । अविनाभाव अर्थात् साध्यके बिना साधनका न होना, साधनका साध्यके होनेपर ही होना, अभावमे बिलकुल नहीं होना, इस नियमको सर्वोपसंहार रूपसे ग्रहण करना तर्क है। सर्वप्रथम व्यक्ति कार्य और कारणका प्रत्यक्ष करता है, और अनेक बार प्रत्यक्ष होनेपर वह उसके अन्वय१. 'उपमानं प्रसिद्धार्थसाधात्साध्यसाधनम् । ____तद्वैधात् प्रमाणं किं स्यात्संशिप्रतिपादकम् ॥'-लघी० श्लो० १९ । २. 'उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः ।'-परीक्षामुख ३१११ ।