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जैनदर्शन मानते हैं । उनका कहना है कि जिस पुरुषने गौको देखा है, वह जब जङ्गलमें गवयको देखता है, और उसे जब पूर्वदृष्ट गौका स्मरण आता है, तब 'इसके समान वह है' इस प्रकारका उपमान ज्ञान पैदा होता है । यद्यपि गवयनिष्ठ सादृश्य प्रत्यक्षका विषय हो रहा है, और गोनिष्ठ सादृश्य का स्मरण आ रहा है, फिर भी 'इसके समान वह है' इस प्रकारका विशिष्ट ज्ञान करनेके लिए स्वतन्त्र उपमान नामक प्रमाणकी आवश्यकता है। परन्तु यदि इस प्रकारसे साधारण विपयभेदके कारण प्रमाणोंकी संख्या बढ़ाई जाती है, तो 'गौसे विलक्षण भैस है' इस वैलक्षण्य विपयक प्रत्यभिज्ञानको तथा 'यह इससे दूर है, यह इससे पास है, यह इससे ऊँचा है, यह इससे नीचा है' इत्यादि आपेक्षिक ज्ञानोंको भी स्वतन्त्र प्रमाण मानना पड़ेगा। वैलक्षण्यको सादृश्याभाव कहकर अभावप्रमाणका विषय नहीं बनाया जा सकता; अन्यथा सादृश्यको भी वैलक्षण्याभावरूप होनेका तथा अभावप्रमाणके विषय होनेका प्रसङ्ग प्राप्त होगा। अतः एकत्व, सादृश्य, प्रातियोगिक, आपेक्षिक आदि सभी संकलनज्ञानोंको एक प्रत्यभिज्ञानको सीमामें ही रखना चाहिये। नैयायिकका उपमान भी सादृश्य प्रत्यभिज्ञान है :
इसी तरह नैयायिक' 'गौकी तरह गवय होता है' इस उपमान वाक्यको सुनकर जंगलमें गवयको देखनेवाले पुरुषको होनेवाली 'यह गवय शब्दका वाच्य है' इस प्रकारकी संज्ञा-संज्ञीसम्बन्धप्रतिपत्तिको उपमान प्रमाण मानते है । उन्हें भी मीमांसकोंकी तरह वैलक्षण्य; प्रातियोगिक तथा आपेक्षिक संकलनोंको तथा एतन्निमित्तक संज्ञासंज्ञीसम्बन्धप्रतिपत्तिको
१. 'प्रत्यक्षेणावबुद्धेऽपि सादृश्येगवि च स्मृते। विशिष्टस्यान्यतः सिद्धरुपमानप्रमाणता ॥'
-मी० श्लो० उपमान० श्लो० ३८ । २. 'प्रसिद्धार्थसाधात् साध्यसाधनमुपमानम् ।'-न्यायसू० १।१।६ ।